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________________ अ पन्नवणा आगे मोटी हुंती तेहनी श्यामाचायें छोटी कीधी हुवे तो कारण नथी । इमहिज नसीत, दशवैकालिक जणाय छे। जे केवली थकां दश पूर्वधारी तथा उपरंत पूर्व नां धरणहार नां कीधा तथा अवधि, मनपज्जवधर, प्रत्येकबुद्ध नों कीधो आगम हुवै तो जो पन्नवणा श्यामाचार्य नीं कीधी हुवै तो श्यामाचार्य तो दश पूर्वधर न हुंता तेवीसमे पाट माटे ऊणा पूर्वधारी हुंता हेमी नाममाला [ १०३४] में कहा - सुहस्ति की लेई बखस्वामी ताई दस पूर्वधारक श्यामाचार्य तो वज्रस्वामी पछै मोड़ा थया छैते भणी दश पूर्वधारी नथी । तेनों कीधो आगमन हुवै। ते भणी मोटी नीं छोटी कीधी संभव । अनैं जे केवली थकां दश पूर्वधारी प्रमुख नीं कीधी टीका अर्थागम कहै तो ते टीका fasi रही नथी । ए टीका तो पाछलां री कीधी छ । आचारांग, सूयगडांग नीं वृत्ति शीलंकाचायें कीधी, शष ९ अंग नीं वृत्ति अभयदेव सूरी कीधी । नंदी, पन्नवणा, चंदपण्णत्ती, सूरपणती, रायपश्रेणि अने जीवाभिगम नीं टीका मलयगिरी कधी । दशवेकालिक नीं टीका हरिभद्रसूरी कीधी । अनुयोगद्वार नीं टीका मलधारी हेमाचार्य कीधी । जे शीलंकाचार्य कृत आचारंग नीं टीका [प. २९२] में द्वितीय श्रुतखंध प्रथम अध्येन प्रथम उदेशे कह्यो– प्राण, बीज, हरी द्रोब, अंकुरादिक सहित पति नीलण कूलण सहित आहार पनि सचित आधाकर्मादिक दोष दुष्ट उत्सर्ग थकी न लेणो अने अपवाद थकी लेणो । जे दुर्लभ द्रव्य वलि दुर्भिक्ष में वलि ग्लानादिक कारण गीतार्थ साधु लेवे, एहवं का । ए आगम किम हुवै इत्यादिक जे टीका विषे अनेक बातां विरुद्ध छे ते, माने तो सिद्धांत नीं आसातना थावे ते भणी ए अर्थागम किम हुवै ? ते भणी निरवशेष तीजा अनुयोग में ए टीकादिक में अण मिलती वार्त्ता कही, ते सर्व प्रकार मान्य न हुवै। ज्ञान दृष्टि करि विचारी जोवजो ।' (ज.स.) सोरठा ८९. अग परूपण ख्यात, अंग विषे नारक प्रमुख । परूपिय अवदात, अल्पबहुल तेहनों पांच गति का अल्पबहुत्व हिवै ॥ ९०. हे भगवंत ! ए नेरइया नं जावत सुर सिद्ध सोयो जी। ए पंच गति नैं समासे करि नै अल्पबहुत्व किम होयो जी ॥ ९१. अल्पबहुत्व जिम पन्नवण सूत्रे, बहु वक्तव्यता पद तीजे जी । तिहां आखी तिम कहिवी इहां पिण, ते इह रीत भणीजे जी ।। ९२. नर नारक ने देव, थोड़ा असंख भेव, सोरठा । सिद्धा तिरि अनुक्रम करि असंच अनंत अनंतगुण || अष्ट गति का अल्पबहुत्व ९२. *फुन गति अष्ट संक्षेप करीने, नरक तिच तिरियंची जी। मनुष्य मनुष्यणी देव रु देवी, सिद्ध गति अठम वंछी जी ॥ *लय: चतुर विचार करी नें देखो Jain Education International ८९. अनन्तरमङ्गप्ररूपणोक्ता, अङ्गेषु च नारकादयः प्ररूयन्त इति तेषामेवाल्पबहुत्वप्रतिपादनायाह( वृ. प. ८६९ ) ९०, ९१. एएसि णं भंते य पंचगतिसमासे ! नेरइयाणं जाव देवाणं सिद्धाण कमरे कमरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तव्वयाए । ( प. २०२०९) 'एएसि ण' मित्यादि' 'पंचगइसमासेणं' ति पञ्चगत्यन्तर्भावेन, एषां चाल्पबहुत्वं तथा वाच्यं यथा बहुवक्तव्यतायां - प्रज्ञापनायास्तृतीयपदे इत्यर्थः, ( वृ. प. ८६९ ) ९२. नरनेरइया देवा सिद्धा तिरिया कमेण इह होंति । थोवमसंखअसंखा अनंतगुणिया अनंतगुणा ॥ १ ॥ ( वृ. प. ८६९ ) ९३-९५. अट्ठगतिसमासप्पाबहुगं च । ( . २५९८ ) 'अदुगरसमाप्याययं च त्ति अष्टगतिसमासेन पदस्य हवं तदपि यथा बहुवतव्यतायां (प. ३३९) श० २५, उ० ३, ठा० ४३८ ४९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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