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________________ ९४. अल्पबहुत्व एहनुं इम कहिवं, मनुष्यणो मव थो थोड़ी जी। तेहथी मनुष्य असंख्यातगुणा छै, नारक असंखगुण जोड़ी जी।। ९५. तेहथी तिर्यंचणी असंख्यातगुणी छै, असंखगुणा सुर संचो जी। ___ संखगुणी सुरी अनंतगुणा सिद्ध, अनंतगुणा तिर्यचो जी। तथा वाच्यम्, अष्टगतयश्चवं-नरक गतिस्तथा तिर्यग्नरामरगतयः स्त्रीपुरुषभेदाद् द्वेधा सिद्धिगतिश्चेत्यष्टो, अल्पबहुत्वं चैवमर्थतः-- नारी नर नेरइया तिरित्थि सुर देवि सिद्ध तिरिया य । थोव असंखगुणा चउ, संखगुणा णंतगुण दोन्नि ॥१॥ (वृ. प. ८६९) ९६. एएसि भंते ! सइंदियाणं, एगिदियाणं जाव अणिदियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ९७. एयं पि जहा बहुबत्तव्वयाए (प. ३।४०) तहेव ओहियं पयं भाणियव्वं, ९८. तच्च पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेनापि तत्रोक्तं इह तु यत्सामान्यतस्तदेव वाच्य मिति दर्शयितुमाह-~ (वृ. प. ८६९) ९९-१०१. 'ओहियं पदं भाणियब्व' ति तच्चैवमर्थतः पण चउ ति दुय अणिदिय एगिदि सइदिया कमा हंति । थोवा तिन्नि य अहिया दोणंतगुणा विसेसहिया ।। (व प. ८६९) इन्द्रियों के सन्दर्भ में अल्पबहुत्व ९६. हे प्रभु ! एह सइंदिया एगिदिया, जाव अणिदिया जाणी जी। कवण-कवण थी अल्प बहु तुला, विशेषाधिक पहिछाणी जी? ९७. जिम बहु वक्तव्यता पद तीजे, सूत्र पन्नवणा मांडो जी। ए पिण अल्पबहुत्व तिहां आखी, - तिमहिज कहिवो ताह्यो जा ॥ ९८. ते वलि पर्याप्त अपर्याप्त नै, . तिहां भेद करि पिण भाख्यो जी। इहां सामान्य थी तेहिज कहिवं, तिणसू आगल इहविध दाख्यो जी। ९९. ओधिक इम भणवं कह्य सूत्रे, तास अर्थ अवलोई जी। पज्जत अपज्जत भेद बिण कीधे, ए सप्त बोल अवलोई जी ।। १००. सर्व थकी थोड़ा पंचेंदिया छै, चरिद्री अधिक विशेखो जी। तेहथी ते इंदिया विसेसाइया, बेइंद्रिय इमहिज पेखो जी ।। १०१. तेहथी अणिदिया अनंतगुणा छ, अनंतगुणा एगिदीया जी। तेहथी सइंदिया विसेसाहिया, ओधिक एम उच्चरीया जी ।। वा०--इहां अणिदिया कह्या ते तेरमो-चवदमो गुणस्थान अनैं सिद्ध लेखवणा, पिण इंद्रिय पर्याय बांध्यां पहिला अपर्याप्ता अणिदिया ते इहां न गिण्या। काय के सन्दर्भ में अल्पबहुत्व १०२. सकाइयादिक अल्पबहुत्व जे, तिमहिज ओधिक भणवी जी। पज्जत्त अपज्जत्त भेद बिण कीधे, पद तीजे' कही तिम थुणवी जी ॥ १०३. सर्व थी थोड़ा तसकाइया छ, असंखगुणा तेऊकायो जी। पृथ्वीकाइया विशेषाधिक छै, अप विशेषाइ ताह्यो जी ।। १०४. वाऊकाइया विशेषाधिक छ, अनंतगुणा छै अकायो जी। तेहथी वनस्पति अनंतगुणा छ, सकाइया विशेसायो जी ।। जीव यावत पर्यव का अल्पबहुत्व १०५. हे प्रभुजी ! ए जीव ने पुद्गल, जाव पज्जव सहु जाणी जी। कवण-कवण थी जाव पद तीजे, भाख्यो तिम पहिछाणी जी ॥ १०२. सकाइयअप्पाबहुगं तहेव ओहियं भाणियव्वं । (श. २५९९) १०३,१०४. तस तेउ पुढवि जल वाउकाय अकाय वणस्सइ सकाया। थोव असंखगुणा हिय तिन्नि उ दोणंतगुण अहिया ।। (व. प. ८६९) १०५. एएसि णं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं जाब (सं. पा) सब्बपज्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा बा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? जहा बहुवत्तव्वयाए (प. ३।१२४] । (श. २५॥१००) १. प. ३१५०। *लय : चतुर विचार करी नै देखो ५. भगवती जोड़ .. . Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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