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वा०-पुलाक निग्रंथ नै बकुश नी पर कहि । निग्रंथ थकी पुलाक अनंत
वा. 'नियंठस्स जहा बउसस्स' त्ति पुलाको गुण हीण इत्यर्थः । इम स्नातक नै पिण कहिद् एतले पुलाक अवशेष संघाते निग्रंथादनन्तगुणहीन इत्यर्थः । चिन्तितः पुलाकोऽवचितव्यो। हिवं बकुश चितवीय छ ।
शेषः सह, अथ बकुशश्चिन्त्यते- (वृ. प. ९०१) बकुश का पुलाक के साथ सन्निकर्ष ३१. बकुश नियंठो हे प्रमु! जिनवर,
३१. बउसे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेण पुलाक ने परस्थान जोग कर। चरित्तपज्जवेहि कि हीणे ? तुल्ले ? अब्भहिए? चारित्त नैं पज्जवे करि ताय, स्यं हीन तुल्य के अधिक कहाय ? ३२. श्री जिन भाखै बकुश सुचीन, पुलाक थी तो नहीं छै हीन । ३२. गोयमा ! नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए अणततुल्य पिण नाहि कहिजै ताय, एह अनंतगुणो अधिकाय ।। गुणमब्भहिए।
(श. २५।३५२) वा..बकुश पुलाक थकी अनंतगुण अधिकहीज हुवै अति विशुद्ध परि
वा.-बकुश: पुलाकादनन्तगुणाभ्यधिक एव णामपणां थकी।
विशुद्धतरपरिणामत्वात्, (वृ. प. ९०१) बकुश का बकुश के साथ सन्निकर्ष ३३. बकूश हे भगवंतजी ! जेह, अन्य बकुश में स्वस्थान जोगेह । ३३. बउसे णं भंते ! बउसस्स सटाणसण्णिगासेणं चरित्तचारित्त नैं पज्जवे करि पृच्छा, श्री जिन भाखै सुण धर इच्छा ।। पज्जवेहिं-पुच्छा।
गोयमा ! ३४. बकूश अनें बकुश माहोमांय, कदाचित ते हीन कहाय ।
३४. सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जइ हीणे कदाच तुल्य कदा अधिकाय, जो हीन तो छद्राणवडिया थाय ।।
छट्ठाणवडिए।
(श. २५॥३५३) ३५. बकुश नियंठो प्रभुजी ! जेह, पडिसेवणा परस्थान जोगेह ।
३५. बउसे णं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परदाणसण्णिचरित्त पज्जव करिने स्यूं हीन ? छट्ठाणवडिए कहियै सुचीन ।। गासेणं चरित्तपज्जवेहिं कि हीणे ? छट्ठाणवडिए। बकुश का शेष अन्य निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकर्ष ३६. कषायकुशील पिण इम कहविाय, बकुश कषायकुशील माहोमाय।।
३६. एवं कसायकुसीलस्स वि। (श. २५॥३५४) छटाणवडिए कह्य जगनाथ, कहिये हिव निग्रंथ संघात ।। ३७. बकूश हे भगवंतजी ! जेह निग्रंथ नै परस्थान जोगेह ।
३७. बउसे णं भंते ! नियंठस्स परदाणसणिणगासेणं चरित्त नै पज्जवे करि पृच्छा,
चरित्तपज्जवेहिं - पुच्छा। श्री जिन भाखै सुण धर इच्छा।
गोयमा ! ३८. बकूश निग्रंथ थी हीनज होय, तुल्य नहीं फून अधिक न कोय ।
३८. हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । एवं एह अनंतगुण हीन कहाय, स्नातक थी पिण इमहिज पाय ।।
सिणायस्स वि । ३९. पडिसेवणा कुशील भदंत ! एवं चेव कहीजे तंत ।
___३९. पडिसेवणाकुसीलस्स एवं ज कहिवी जिन वच साखी॥
चेव बउसवत्तब्बया वक्तव्यताज बकुश नी भाखी,तिमहिज कहिवी जिन वच साखी॥
भाणियव्वा । ४०. कषायकुशील ने संजोगे कर, एवं चेव दीयै जिन उत्तर ।
४०. कसायकुसीलस्स एस चेव बउसवत्तव्वया, नवरं . बकुश नी वक्तव्यता तिम जाण, णवरं पुलाक संघात छट्ठाण ।। पुलाएण वि सम छट्ठाणवडिए। (श. २५॥३५५) वा०- एतले कषायकुशील पिण बकुश नी पर कहिवो एतलो विशेष ।
वा. - कषायकुशीलोऽपि बकुशवद्वाच्यः, केवल पुलाक थकी बकुश अधिकोज हुवै अनै कषाय कुशील तो षटस्थान पतित हवै।४।
पुलाकाद्बकुशोऽभ्यधिक एवोक्तः सकषायस्तु षट्निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ के साथ पुलाक यावत कषायकुशील का सन्निकर्ष
स्थानपतितो वाच्यो हीनादिरित्यर्थः, (व.प. ९०१) ४१. निग्रंथ हे भगवंतजी ! जेह, पुलाक ने परस्थान जोगेह ।
४१. नियंठे णं भंते ! पुलागस्स परढाणसण्णिगासेणं चरित्त ने पज्जवे करि पृच्छा, तसुं उत्तर सुणवा नी इच्छा ।।
चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा। ४२. जिन भाखै निग्रंथ सुचीन, एह पुलाक थकी नहि हीन । ४२. गोयमा ! नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए अणंतनहीं छै तुल्य अधिक ए होय, अनंतगुण ए अधिक सुजोय ।।
गुणमब्भहिए। ४३. एवं जावत कहिये एह, कषायकुशील ने पज्जव करेह । ४३. एवं जाव कसायकुसीलस्स। (श. २५२३५६)
निग्रंथ हीण न वली नहिं तुल्य, एह अनंतगुण अधिक अमूल्य ॥
१३२ भगवती जोड
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