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________________ २५. पुलाए णं भंते ! बउसस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि हीणे ? तुल्ले ? अब्भहिए ? पुलाक का अन्य निर्ग्रन्थों के साथ सन्निकष २५. "हे भगवंत ! पुलाक छै जेह, बकुश नैंज चरण पज्जवेह। इम पर स्थान जोग करि ताय, स्यूं हीण तुल्य के अधिक कहाय ? वा०-पुलाक हे भगवन ! बकुश नै पर स्थान सन्निकर्ष चारित्र पर्याये करी विजातीय योग प्रतै आश्रयी नैं इत्यर्थः । विजातीय ते पुलाक ते बकुश थकी स्यूं हीन अथवा तुल्य अथवा अभ्यधिक ? इति प्रश्न । वा.–'पुलाए णं भंते ! बउसस्से' त्यादि, 'परट्ठाणसन्निगासेणं' ति विजातीययोगमाश्रित्येत्यर्थः, विजातीयश्च पुलाकस्य बकुशादिः, (वृ. प. ९०१) २७. गोयमा ! हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । वा.-तत्र पुलाको बकुशाद्धीनस्तथाविधविशुद्धय भावात्, (व. प. ९०१) २८. एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि। २९. कसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्टाणे । सोरठा २६. पुलाक छै ते ताय, बकुश ने पज्जवे करी। स्यूं हीन तुल्य अधिकाय, इम ए प्रश्न विजातीये ।। २७. *श्री जिन भाखै पुलाकज चीन, बकुश ने पज्जवे करि हीन । तुल्य अधिक पिण तास न कहिये, अनंतगुण ए हीणज रहियै ।। वा०-हे गोतम! पुलाक बकुश थकी हीन हुवै तथाविध विशुद्धि नां अभाव थकी, नो तुल्ये कहितां नहीं सरीखा तथा नहीं अधिक । इम प्रतिसेवना कुशील ने पिण कहिवो। २८. प्रतिसेवणा कुशील संघात, पुलाक हीन इमज आख्यात । तुल्य अधिक पिण कहिये नांय, हीण अनंतगुण पुलाक थाय ।। २९. कषायकुशील संघात पुलाग, छट्ठाणवडिए कह्य महाभाग । जेम स्वस्थान पुलाक आख्यात, तेम कषायकुशील संघात ।। वा०-पुलाक पुलाक नी अपेक्षाये जिम छट्ठाणवडिया कह्यो तिम पुलाक कषायकुशील नी अपेक्षाये पिण छट्ठाणवडिया कहिवं इत्यर्थ । तिहां पुलाक कषायकुशील थी हीन पिण हुवे अविशुद्ध संजमस्थान वृत्तिपणां थकी, अथवा तुल्य समान संजमस्थान वृत्तिपणां थकी। अथवा अधिक हुवै शुद्धतर संजमस्थान वृत्तिपणां थकी। यतः पुलाक नां तथा कषायकुशील नांज सर्व जघन्य संजमस्थान नीचा तिवारं ते बिहुं समकाले असंख्येयके जाता थकां तुल्य अध्यवसायपणां थकी तिवार पछ पुलाक व्यवच्छेद पाम हीन परिणामपणां थकी। पुलाक व्यवच्छेद थय छतै कषायकुशील हौज असंख्याता संजमस्थान प्रतै जाइ शुभतर परिणाम थकी। तिवार पछै कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील, बकुश एह समकाले असंख्याता संजमस्थान प्रतै जाइ तिवार पछ बकुश व्यवच्छेद पामै । प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील बे असंख्याता संजमस्थान प्रत जाता तिवार पर्छ प्रतिसेवनाकुशील व्यवच्छेद पामे। तथा कषायकुशील असंख्याता संजमस्थान प्रत जाय तिवार पछै ते पिण व्यवच्छेद पामै, तिवारै पर्छ निग्रंथ, स्नातक ए बेहुं एक संजमस्थानक पामै । वा.---'कसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्ठाणे' त्ति पुलाक: पुलाकापेक्षया यथाऽभिहितस्तथा कषायकुशीलापेक्षयाऽपि वाच्य इत्यर्थः, तत्र पुलाकः कषायकुशीलाद्धीनो वा स्यात् अविशुद्धसंयमस्थानवृत्तित्वात् तुल्यो वा स्यात् समानसंयमस्थानवृत्तित्वाद् अधिको वा स्यात् शुद्धतरसंयमस्थानवृत्तित्वात् यतः पुलाकस्य कषायकूशीलस्य च सर्वजघन्यानि संयमस्थानान्यधः, ततस्तौ युगपदसंख्येयानि गच्छतस्तुल्याध्यवसानत्वात्, तत: पुलाको व्यवच्छिद्यते हीनपरिणामत्वात्, व्यवच्छिन्ने च पुलाके कषायकुशील एकक एवासंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति शुभतरपरिणामत्वात्, ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छन्ति, ततश्च बकुशो व्यवच्छिद्यते, प्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलावसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छतस्ततश्च प्रतिसेवनाकुशीलो व्यवच्छिद्यते, कषायकु शीलस्त्वसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति, ततः सोऽपि व्यवच्छिद्यते, ततो निर्ग्रन्थ स्नातकावेकं संयमस्थानं प्राप्नुत इति । (व.प. ९०१) ३०. नियंठस्स जहा बउसस्स । एवं सिणायस्स वि । (श. २५१३५१) ३०. पूलाक निग्रंथ ने पज्जवे कर, जेम बकुश कर तिमहिज उच्चर। स्नातक ने पज्जवे पिण एम, अनंतगुण हीणो छै तेम ॥ *लयः सोही सयाणां अवसर साधे श० २५, उ० ६, ढा० ४४८ १३१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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