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९.१०. 'उक्कोसेण चत्तारि' त्ति एकत्र भवे उपशमश्रेणीद्वयसम्भवेन प्रत्येक सक्लिश्यमान विशुद्धघमानलक्षणसूक्ष्मसम्परायद्वयभावाच्चतस्रः प्रतिपत्तय: सूक्ष्मसम्परायसंयतस्वे भवन्ति, (वृ. प. ९१६)
गीतकछंद ९. इक भव विषे जे श्रेणि उपशम, दोय वार संभाव ही।
इक बार में गुणठाण दशमज, चढत उत्तरता लही ।। १०. इम वार बे जे श्रेणि उपशम, ग्रहण थी पहिछाण ही।
चिहुं वार एह चरित्र चउथो, वृत्तिकार बखाण ही ।।
वा०-एक भव नै विषे उपशमश्रेणि दोय नै संभवै करि प्रत्येके संक्लिश्यमान विशुद्धिमान लक्षण सूक्ष्मसंपराय नां दोय नां भाव थकी च्यार वार पड़िवजे। ११. *यथाख्यात नै पूछियां सा० !
___ जिन कहै इक भव धार हो स० ! एक वार आवै जघन्य थी गो० !
उत्कृष्टो दोय वार हो स० !
११. अहक्खायस्स–पुच्छा । गोयमा ! जहण्णणं एक्को, उक्कोसेणं दोण्णि ।।
(श. २१५३०)
१२. 'अहक्खाए' इत्यादी 'उक्कोसेणं दोन्नि' त्ति उपशम
श्रेणीद्वयसम्भवादिति। (वृ. प. ९१६) १३ सामाइयसंजयस्स णं भंते ! नाणाभवग्गहणिया
केवतिया आगरिसा पण्णत्ता? गोयमा ! जहा बउसे। (श. २५१५३१)
गीतकछंद १२. इक भव विषे वर श्रेणि उपशम, उभय वार संभावियै ।
गुणठाण ग्यारम वार बे, इम वृत्तिकार बखाणियै ।। १३. *प्रभु ! सामायिक चरित ही सा० !
__ अनेक भव रै माय हो नि ! कतिवार आवै तिको?सा०! बकूश जिम कहिवाय हो स० !
सोरठा १४. उत्कृष्ट इक भव मांहि, नव सौ वारज आवही । ___ अठ भव लेखै ताहि, बोहिंतर सो वार ही ॥ १५. *छेदोपस्थापनी पूछियां सा० !
जिन कहै जघन्य थी दोय हो स० ! उत्कृष्ट नव सय ऊपरै सा०! सहस्र मांहि अवलोय हो स० !
गीतकछंद १६. इक भव विषे उत्कृष्ट इक सौ वीस वारज आवियै ।
इम अठ भवे अठगुणां कोधां, नव सय साठज भाविये ।।
१५. छेदोवट्ठावणियस्स-पुच्छा।
गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं उरि नवण्हं सयाणं अतो सहस्सस्स।
वा०-तेह थकी अनेरै प्रकार करिक पिण जिम नव सय थी अधिक हुवै तिम कहिवो।
१६. किलकत्र भवग्रहणे षड्विंशतय आकर्षाणां भवन्ति,
ताश्चाष्टाभिर्भवगुणिता नव शतानि षष्टघधिकानि भवन्ति,
(वृ. प. ९१६) वा० -इदं च सम्भवमात्रमाश्रित्य सङ्खयाविशेषप्रदर्शनमतोऽन्यथाऽपि यथा नव शतान्यधिकानि भवन्ति तथा कार्यम
(व. प. ९१६) १७. परिहारविसुद्धियस्स जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं
सत्त।
१७. *परिहारविशुद्ध बहु भव विषे गो०!
आवै जघन्य थकी दोय वार हो स० ! सप्त वार उत्कृष्ट थी गो०! पवर न्याय सुविचार हो स० !
सोरठा १८. ते इक भव रै माय, तीन वार कहिवा थकी।
वलि त्रिण भव में आय, ते माट तसु भंग इम ।। *लय : आई छू देवा ओलम्भड़ा सासूजी
१८. एकत्र भवे तेषां त्रयाणामुक्तत्वात् भवत्रयस्य च तस्याभिधानाद्
(व. प. ९१६)
१८८ भपवती जोड़
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