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________________ १६. लोगागाससेढीओ णं भते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जाओ-पुच्छा। १७. गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। __ वा.- लोगागाससेढीओ णं भंते ! 'पएसट्टयाए' इत्यादौ 'सिय संखेज्जाओ सिय असंखेज्जाओ' त्ति अस्येयं चूर्णिकारव्याख्या-लोकवृत्तानिष्क्रान्तस्यालोके प्रविष्टस्य दन्तकस्य याः श्रेणयस्ता द्वित्रादिप्रदेशा अपि संभवन्ति तेन ताः सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते शेषा असङ्खचातप्रदेशा लभ्यन्त इति, (व. प. ८६५) हिवं ए ४ प्रश्नोत्तर लोकाकाश आश्री प्रदेशअर्थपणे करि कहियै छ--- १६. लोकाकाश नी श्रेणी प्रभजी ! प्रदेश-अर्थपणेहो जी। स्यूं संख्याती इत्यादि पूछा? हिव जिन उत्तर देहो जी ।। १७. कदाचित संख्याती कहिजे, कदा असंख्याती जाणी जी। अनंती नहीं छ प्रदेश आश्रयी, हिव तसु न्याय पिछाणी जी ।। वा०- इहां प्रदेश आश्री कदाचित संख्याती कही। ते लोक नै विषे किसी श्रेणी नां संख्याता प्रदेश हुवै, तेहगें न्याय कहै छ। इहां चूर्णिकार नी ए व्याख्या-लोक वृत्त थकी नीकल्या अनै अलोक नै विषे पंठा एहवा जे दंता, तेहनी जे श्रेणि ते काइक श्रेणि दोय प्रदेश नी हवै, कांइक श्रेणि तीन प्रदेशादिक नीं पिण संभव, तिण करिक ते श्रेणि ना प्रदेश सख्याता लाभ। शेष असंख्याता प्रदेश लाभ इति । वलि टीकाकारस्तु साक्षेपपरिहारं चेह प्राह - परिमंडलं जहन्नं भणियं कडजुम्मवट्टियं लोए । तिरियाययसेढीणं संखेज्जपएसिया किह णु ?॥१॥ दो दो दिसासु एक्केक्कओ य विदिसासु एस कडजुम्मे । पढमपरिमंडलाओ वुड्ढी किर जाव लोगतो ॥२॥ इत्याक्षेपः, परिहारस्तु अट्ठसया पसज्जइ एवं लोगस्स न परिमंडलया । वट्टालेहेण तओ वुड्ढी कडजुम्मिया जुत्ता ॥३॥ एवं च लोकवृत्तपर्यन्तश्रेणयः संख्यातप्रदेशिका भवन्तीति । १८. पूर्व पश्चिम लांबी पिण इमहिज, इम दक्षिण उत्तर लांबी श्रेणी जी। कदा संख्याती के असंख्याती छै, प्रदेश आश्रयी लेणी जी। १९. ऊंची नीची लांबी नहिं संख्याती, असंख्याती ए श्रेणी जी । नहीं अनंती प्रदेश आश्रयी, लोक आकाश कहेनी णी जी ।। वा०-इहां कह्यो - ऊंची नीची लांबी श्रेणि प्रदेश आश्रयी संख्याती नथी अनै अनंती नथी ते असंख्याती छ जे भणी । ते लोक नीं श्रेणि नै ऊर्ध्वलोकान्त थकी अधोलोकान्त नै विषे तो अधोलोकान्त थकी ऊर्ध्वलोकान्त नै विषे प्रतिघात हुवै ते भणी असंख्यात प्रदेशहीज तथा जे अधोलोक नां कूणां थकी नीकली अनै ब्रह्मलोक नै तिरछ, बिचलै, छहडै रहै छै तिका श्रेणी पिण संख्यात प्रदेश नी न लाभ, एहिज सूत्र नां वचन थकी। १८. एवं पाईणपडीणायताओ वि। दाहिणत्तरायताओ वि एवं चेव । २०. अलोकाकाश नी श्रेणी प्रभुजी ! प्रदेश आश्रयी प्रच्छा जी। कदा संख्याती कदा असंख्याती, कदा अनंती इच्छा जी। १९. उड्ढमहायताओ नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। (श. २५।७९) वा.-'उड्ढमहाययाओ' 'नो संखेज्जाओ असंखेज्जाओ' त्ति यतस्तासामुच्छ्रितानामूर्ध्वलोकान्तादधोलोकान्तेऽधोलोकान्तादूई वलोकान्ते प्रतिघातोऽतस्ता असङ्ख्यातप्रदेशा एवेति, या अप्यधोलोककोणतो ब्रह्मलोकतिर्यग्मध्यप्रान्ताद्वोत्तिष्ठन्ते ता अपि न सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते, अत एव सूत्रवचनादिति। (वृ. प. ८६५) २०. अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पदेसट्ठयाए-- पुच्छा । गोयमा ! सिय सखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ। (श. २५८०) वा.-.--'अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए' इत्यादि, 'सिय संखेज्जाओ सिय असंखेज्जाओ' त्ति यदुक्तं तत्सर्वं क्षुल्लकप्रतरप्रत्यासन्ना ऊर्वाधआयता अधोलोकश्रेणीराश्रित्येत्यवसेयं, ता हि आदिमा: सङ्खचातप्रदेशास्ततोऽसङ्खघातप्रदेशास्ततः परं वा-अलोकाकाश नी श्रेणी प्रदेश आश्रयी कदा संख्याती कदा असंख्याती कदा अनंती ते सर्व थकी क्षुल्लक प्रतर तेहमें नजीक जे ऊर्ध्व अध: आयत अधोलोकाकाश नी श्रेणी नै आश्रयी जणाय छ। ते आदि नी श्रेणी संख्यात प्रदेश की, ते उपरंत असंख्यात प्रदेश की, ते उपरंत अनन्त प्रदेश की। अनै तिरछी लांबी अलोक श्रेणी प्रदेश थकी अनंत प्रदेशनीज जाणवी । ३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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