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रत्नप्रभा आदि संदर्भ में संस्थान २५. *प्रभ ! संठाण परूप्या केता? थी जिन भाखै पंचो जी।
परिमंडल यावत आयत लग, वलि शिष्य पूछ संचो जी, कांइ।।
२५. कति णं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! पंच संठाणा पण्णत्ता,तं जहा परिमंडले जाव आयते।
(श. २५३७)
सोरठा २६. अणित्थंथ संठाण, संयोगे करि नीपनों।
ते नहिं वंछयो जाण, तिण सूं पंच कह्या इहां ।। २७. *परिमंडल संठाण प्रभुजी ! स्यू संख्याता होयो जी।
अथवा असंख्यात ते कहिये, तथा अनंता जोयो जी ? कांइ ।। २८. श्री जिन भाखै नहिं संख्याता, असंख्यात पिण नाहीं जी ।
परिमंडल संठाण अनंता, तिके लोक रै मांही जी, कांइ । २९. वट्ट संठाण प्रभु ! संख्याता, एवं चेव कहायो जी। इम यावत आयत लग कहिवो, वलि शिष्य प्रश्न सुहायो जी, कांइ।। ३०. हे प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी में, परिमंडल संठाणो जी।
स्यूं संख्याता के असंख्याता, तथा अनंता जाणो जी? कांइ ।। ३१. श्री जिन भाखै नहिं संख्याता, असंख्यात नहिं जेहो जी।
परिमंडल संठाण अनंता, रत्नप्रभा ने विषहो जी, कांइ।। ३२. वट्ट संठाण प्रभु ! संख्याता, के असंख्यात कहिवाई जी ?
एवं चेव पूर्ववत इमहिज, यावत आयत तांई जी, कांइ ।। ३३. सक्करप्रभा ने विष प्रभुजी! परिमंडल संठाणो जी।।
एवं चेव जाव आयत लग, इम जाव सप्तमी जाणो जी, कांइ।।
२६. इह षष्ठसंथानस्य तदन्यसंयोगनिष्पन्नत्वेना
विवक्षणात् पञ्चेत्युक्तम् । (व.प. ८५९) २७. परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा ?
असंखेज्जा ? अणता? २८. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता।
(श. २५॥३८) २९. वट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव । एवं जाव आयता।
(श. २५॥३९) ३०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला
संठाणा कि संखेज्जा? असंखेज्जा ? अणता? ३१. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणता।
(श. २५१४०) ३२. वट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव । एवं जाव आयता।
(श, २५१४१) ३३. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला
संठाणा? एवं चेव । एवं जाब आयता । एवं जाव अहेसत्तमाए।
(श. २५४४२) ३४. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा? एवं जाव अच्चुए।
(श. २५।४३) ३५. गेवेज्जविमाणे णं भंते ! परिमंडला संठाणा ? एवं
चेव । एवं अणुत्तरविमाणेसु वि । एवं ईसिपब्भाराए वि।
(श. २५१४४)
३६. अथ प्रकारान्तरेण तान्याह-
(वृ. प. ८५९)
३४. सौधर्म कल्प विष प्रभजी ! परिमंडल संठाणो जी ?
एवं चेव यावत अच्युत इम, रत्नप्रभा जिम जाणो जी, कांइ ।। ३५. परिमंडल ग्रंवेयक विषे प्रभु ! एवं चेव कहेहो जी। एम अणत्तर वैमाण में पिण, सिद्धशिला में लेहो जी, कांइ ।।
सोरठा ३६. अन्य प्रकार करेह, वलि संस्थान परूपणा ।
कीजै छै हिव जेह, चित्त लगाई सांभलो ।। ३७. *जे आकाशज देश विषे प्रभु ! वत्त परिमंडल एको जी।
जव नों मध्य भाग छै जेहनों, जव आकार विशेखो जी, कांइ ।। ३८. तत्र तिहां जव मध्य विषे जे, इक परिमंडल विषेहो जी। अन्य परिमंडल स्यू संख्याता, के असंख अनंत कहेहो जी ? कांइ ।।
वा. - 'जत्थ' इत्यादि सर्व पिण लोक परिमंडल संस्थान द्रव्य करिक निरंतर व्याप्त छ। तिहां कल्पना करिक जिके-जिके तुल्य प्रदेश नां अवगाहणहार अन जेनां तुल्य प्रदेश तुल्य वर्णादि पर्याय एहवा परिमंडल संस्थानवंत द्रव्य ते पंक्तिए स्थापिए । इम एक-एक जाति ना एकेक पंक्तिए स्थापता छता अल्पबहुपणां नां भाव थकी जवाकार परिमंडल संस्थान नों समुदाय हुवे । तिहां
३७. जत्थ णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमझे
३८. तत्थ परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा? असंखेज्जा? अणंता?
वा.-'जत्थ ण' मित्यादि, किल सर्वोऽप्ययं लोक: परिमण्डलसस्थानद्रव्यनिरन्तरं व्याप्तस्तत्र च कल्पनया यानि यानि तुल्यप्रदेशावगाहीनि तुल्यप्रदेशानि तुल्यवर्णादिपर्यवाणि च परिमण्डलसंस्थानवन्ति द्रव्याणि तानि तान्येकपंक्त्यां स्थाप्यन्ते, एकमेकैक
*लय : सर्वार्थसिद्ध र चन्द्रव जी काइ
२० भगवती जोड़
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