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________________ । ४९. पविणा विषे पिण नहीं हूं. कषायकुशोते होय । हुवै नहीं निग्रंथ विषे फुन, स्नातक विषे न कोय ।। ५०. एवं सूक्ष्मसंपराय पिण, कषायकशीले होय । शेष पंच जे का नियंठा, तेह विर्ष नहि कोय ।। ५१. यथाख्यात पूछयां जिन भाखं पुला में नहि कोय । | जाव कषायकुशील विषे नहीं, निग्रंथ स्नातक होय ॥ संयत में प्रतिसेवना ५२. सामायिक संजत स्युं प्रभुजी अप्रतिसेवक विवं ए ? गोयम ५३. जिन भाखं प्रतिसेव विषे से, फुन सेवं दोष तथा नहिं सेवै, इम कहिये बिहुं भेव ॥ ५४. जो प्रतिसेवक विधे हुवे तो पवर मूलगुण खेम तेह विषे ए दोष लगाये, शेष पुलाकज जेम ॥ ५५. प्रतिसेवक जो थाय, तो फुन उत्तरगुण मांय मूलगुण मांय, आश्रव पंच कहाय, ५७. वलि उत्तरगुण मांय ५६. ह प्रतिसेवक में होय ? प्रश्न सुजोय || अप्रतिसेव । सोरठा पवर मूलगुण नैं विषे । सेवे दोष हिं दोषण प्रतंज विधे ॥ सेवतो । *लय सीता आवं रे घर राग : तिनमें कोइक दोषण प्रतं दश पक्या सुहाय स्पांमें कोइक पच्चक्खाण ५८. *जिम सामायिक आवयो ते विध, दोपस्थापनीय जाण । प्रतिसेवक फुन अप्रतिसेवक, पूर्व रीत पिछाण || ५९. परिहारविशुद्धिक पूछयां जिन कहै, प्रतिसेवके न थात । अप्रतिसेवक विषे हुवै ए, इम यावत यथाख्यात ।। Jain Education International सेवतो || ॥ वा० - इहां परिहारविशुद्ध नै अपडिसेवक कह्यो, ते आदरतां थकां संभव । जे छेदोपस्थापनीय चारित्र नों धणी ते परिहारविशुद्ध प्रत अंगीकार करें, ते नित्य पडिकमणो करें। जो दोष न लागे तो नित्य पडिकमणां रो कांइ काम ? जे यथाख्यात चारित्र नां धणी पडिकमणो न करें, तेहने दोष न लागे ते मा । तिवार कोइ कहै - जे परिहारविशुद्ध में तीन भली लेश्या आगल कहि ते मार्ट ए अप्रतिसेवी छ । तेहनुं उत्तर ए तीन भली लेश्या परिहारविशुद्ध आदरतां हुवै। ए आदरता एहवं किहां का छे ? तेहनुं उत्तरपन्नवणा प्रथम पद में विषे अर्थ में का छं ते लिखियं छं से किं तं परिहारविमुनिरितारिया ? परिहारविमुद्धियचरितारिया यदुविहा पण्णत्ता तं जहा निविसमाजपरिहारविसुमिरितारिया य निव्काइयपरिहारविसुद्धियचरितारिया य । ( पण्ण० १।१२७ ) परिहारविशुद्धि चारित्र स्वरूप यथादृष्टान्ते करि कहे नवनों गच्छ हुवै । तिहां एक वाचनाचार्य, च्यार निर्विशमान उग्र तपकारी अनैं प्यार तेहनां सेवाकारी एवं ९ । लगावतो । भांगतो ॥ 1 ४९. तो पडवासीले होज्जा कसावकुसीले होगा, नो नियंडे होना, नो सिमाए होना । ५०. एवं सुहुमसंपराए वि । ( . २५/४६५) ५१. पुना । गोयमा ! नो पुलाए होज्जा जाव नो कसायकुसीले होना, निपडे वा होण्या, सिजाए वा होण्या (श. २५/४६६ ) ५२. सामाइयसंजए णं भंते! कि पडिसेवए होज्जा ? अपविए होगा ? ४३. गोमा ! पडिसेवए या होना, अपविए वा होला । १४. जद परिसेवाए होज्जा कि मूलगुणपटिसेवाए होज्जा, सेसं जहा पुलागस्स । ५८. जहा सामाइजए एवं छेदोवद्वावणिए वि (श. २५/४६७) ५९. परिहारविमुद्धिपसंजए -पुचड़ा। गोमा ! तो परिसेवर होण्या, अपविसेवाए होला । एवं जाव अहखायसंजए । (म. २५/४६८) For Private & Personal Use Only इह नवको गणः चत्वारो निर्विशमानकाश्चस्वारश्वानुचारिणः एकः कल्पस्थिती वाचनाचार्य । यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसम्पन्नाः तथापि कल्पत्वात् तेषामेकः कश्चित् कल्पस्थितोऽज्यस्थाप्यते । श० २५, उ० ७, ढा० ४५३ १६३ www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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