SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोरठा ४६. इक भव में इक वार, फुन दूजो आकर्ष ते। अन्यत्र भवे विचार, इम अनेक भव जघन्य बे॥ ४६. एक आकर्ष एकत्र भवे द्वितीयोऽन्यत्रेत्येवमनेकत्र भवे आकर्षी स्यातां, (वृ. प. ९०५,९०६) स्याद् गीतकछंद ४७. उत्कृष्ट थी आकर्ष सप्तज, तास न्याय कहावही। उत्कृष्ट थीज पुलाक छै ते, तीन भव में आवही ।। ४८. इक भव विषे उत्कृष्ट थी, ते तीन बार लहै वही। त्रिण वार लब्धि पुलाक फोड़े, इक भवे उत्कृष्ट ही ।। ४९. धुर भव विषे इक वार फुन, बे भव विषे त्रिण-त्रिण लही। इम प्रमुख विकल्प करि बहु भव, सप्तवारज जेष्ठ ही ।। ४७. 'उक्कोसेणं सत्त' ति पुलाकत्वमुत्कर्षतस्त्रिषु भवेषु (वृ. प. ९०६) ४८. एकत्र च तदुत्कर्षतो वारत्रयं भवति। (वृ. प. ९०६) ४९. ततश्च प्रथमभवे एक आकर्षोऽन्यत्र च भवद्वये त्रयस्त्रय इत्यादिभिर्विकल्पैः सप्त ते भवन्तीति । (व प. ९०६) ५०. बउसस्स—पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो । ५०. *बकुश पूछयां श्री जिन भाखै, जघन्य थकी बे वार । उत्कृष्ट बोहितर सो वेला, पाठ सहस्सग्गसो सार । सोरठा ५१. बकुशपणुं समील, जघन्य वार द्वय बे भवे । पर्छ कषायकुशील, लही श्रेणि चढ शिव गमन ।। गीतकछंद ५२. उत्कृष्ट सप्तज सहस्र बे सौ, तास न्याय कहावही। इक भव विषे उत्कृष्ट थी जे, वार नव सय आवही ।। ५३. उत्कृष्ट भव तसु अष्ट आख्या, एक-एक भवे वही। आकर्ष नव सय नव सये, इम सप्त सहस्र बे सौ सही ।। वा.-बकुश ना आठ भव ग्रहण उत्कृष्ट थकी कह्या । तिहां एक भव नै विषे उत्कृष्ट थकी शत पृथक कह्या । तिहां जिवार आठ भव ग्रहण नै विषे उत्कर्ष थकी प्रत्येके नवस आकर्ष हुवै। तिवारं नवस नै आठगुणा करतां ७२०० आकर्ष सम्यक्त्व सामायिक १, श्रुत सामायिक २, देशविरति सामायिक ३-ए त्रिण उत्कृष्ट घणां भव में असंख्याता हजार वार आवे अन सर्वविरति पृथक हजार वार आवै। वा.-'उक्कोसेणं सहस्सग्गसो' त्ति बकुशस्याष्टो भवग्रहणानि उत्कर्षत उक्तानि, एकत्र च भवग्रहणे उत्कर्षत आकर्षाणां शतपृथक्त्वमुक्तं, तत्र च यदाऽष्टास्वपि भवग्रहणेषत्कर्षतो नव प्रत्येकमाकर्षशतानि तदा नवानां शतानामष्टाभिर्गुणनात्सप्तसहस्राणि शतद्वयाधिकानि भवन्तीति । (व. प. ९०६) तिण्ह सहस सहस्समसंखा पुहुत्तं च होइ विरईए। नाणाभवे आगरिसा एवइया होंति णायव्वा । (अनुयोग वृ. प. २४१) ५४. एवं जाव कसायकुसीलस्स। (श. २५४२१) ५५. नियंठस्स णं-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं पंच । (श २५४४२२) ५४. *एवं जाव कषायकुशीलज, बह भवे जघन्य बे वार । बार बोहितर सौ उत्कृष्टो, न्याय पूर्ववत सार ।। ५५. निग्रंथ पूछयां श्री जिन भाखै, जघन्य थकी बे वार । पंच वार उत्कृष्टो आवै, तास न्याय अवधार ।। सोरठा ५६. धुर भव उपशम श्रेण, क्षपक श्रेणि द्वितीये भवे । बहु भव बे वारेण, इम लही शिव पद संचरै ।। *लय : रे मुनिवर ! जीव क्या व्रत पालो १४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy