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________________ कहित संयोजन ते स्वस्थान संयोजन चारिव पर्याय करी स्यूं हीन विद संगमस्थान संबंधिपण करी विशुद्धतर पर्याय अपेक्षाये अविशुद्धतर पर्याय होन, तेनां योग चकी साधु पिण हीन कहिये। तुल्लेति तुल्यशुद्धिक पर्याय योग की ते तुल्य कहिये अन्नहित विद्युतर पर्याय योग की अभ्यधिक कहिये इति प्रश्न । सोरठा १८. पुलाक पज्जवा ताय, अन्य पुलाक पर्यव थकी । स्यूं हीन तुल्य अधिकाय, इम ए प्रश्न सजातीय ।। १९. श्री जिन भाखे कदाचित हीन, कदाचित ह्वै तुल्य सुचीन । कदाचित कहिये अधिकाय, पुलाक पुलाक नैं मांहोमाय ॥ वा० - सिय होणेत्ति कहितां कदाचित अशुद्ध संयमस्थानवत्तिपणां थकी । सियतुल्लेति कदाचित एक संजमस्थानवत्तिपणां थकी सरीखा तुल्यस्थितिक पर्याय योग थकी तुल्य । सिय अन्भहिएत्ति कदाचित अभ्यधिक ते विशुद्धतर संजम - स्थानवत्तपणां थकी । २०. जो हीन तो अनंतभाग छै हीन, असंखभाग वा हीन कथीन । संख्यातभाग होन कहिवाय, ए त्रिहं भाग हीन अपेक्षाय ।। २१. संवेजगुणा वा हीन कहाय, असंख्यातगुण हीन वा थाय अथवा जेह अनंतगुण हीन, ए त्रिहुं हीन गुणाज कथीन ।। २२. अथ अधिक जो कहियै ताय, तो अनंतभाग अधिक कहिवाय । असंखभाग अधिक वा होय, संखेजभाग अधिक वा जोय ।। २३. तथा संख्यात गुण अधिकाय, असंखगुणा वा अधिक कहाय । अथवा अनंतगुण अधिक कहीजे, स्वस्थान आश्रयी एह गुणीजं ॥ सोरठा अन्य पुलाकज पज्जव थी । हीणाधिक षट स्थान करी ॥ २४. पुलाक नां पर्याय, कदा तुल्य वा थाय, वा० -- जो हीन हुवै तो अनंतभाग हीन इहां असद्भाव स्थापना थकी पुलाक नां उत्कृष्ट संजम-स्थान पर्यवमान दश सहस्र, तेहने सर्व जीव अनंतक शत परिमाणपण कल्पित भाग थी हरयां थकी १०० लाधा । द्वितीय प्रतियोगी पुलाक चरण पर्यवाग्र नव सहस्र नव से अधिक । पूर्वे भाग लाधो शत, ते इहां प्रक्षिप्त कीघां ते १०००० दस सहस्र थया । तिवारे एह पुलाक सर्व जीव अनंत भाग हर्या लाधो एक सौ तिणे करी हीन ते मार्ट अनंत भाग हीन कहिये १ । असंखेज्जभागहीणे वत्ति । पूर्वोक्त कल्पित पर्याय राशि दश सहस्र नों १०००० लोकाकाश प्रदेश परिमाण असंख्येय, तेहने कल्यनाये पचास ५० प्रमाण करिये। तिणे करी ५० भाग हार्या लाधा २०० दोय सय । द्वितीय प्रतियोगी *लय सो ही सयाणां अवसर साधे : Jain Education International पुलाकादिरेव तस्य संनिकर्ष:-संयोजनं स्वस्थानसंनिकर्षस्तेन, कि ? - 'हीणे' ति विशुद्धसंयमस्थानसम्बन्धित्वेन विशुद्धतरपर्यवापेक्षया अविशुद्धतरसंयमस्थानसम्बन्धित्वेनाविशुद्धतारा: पर्यवा हीना - स्तद्योगात्साधुरपि हीनः 'तुल्ले' त्ति तुल्यशुद्धिकपर्यंवयोगात्तुल्य: 'अब्भहिय' त्ति विशुद्धतरपर्यव योगादभ्यधिकः । (बृ. प. ९००) १९. गोयमा ! सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए । वा०सिय होणे' ति अशुद्धसंयमस्थानयत्तित्वात् 'वि' ति एकसयमस्थानवत्तित्वात् सिय अन्महिए' ति विशुद्धता (बृ. प. ९०० ) २० जइ हीणे अनंतभागहीणे वा, असंखेज्जइभागहीणे वा, संभागही वा २१. संजीवा अससेज्जगद्दी वा अनंतगुणहीणे वा । २२. अह अब्भहिए अनंतभागमब्भहिए वा, असंखेज्जइभागमभहिए वा, संखेज्जभागमब्भहिए वा, २३. संखेज्जगुणमब्भहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए वा, अणत गुणमब्भहिए वा । (श. २५/३५० ) For Private & Personal Use Only बा. 'अभागी' ति विस्थापना पुलाकस्योत्कृष्टसं यमस्थानपर्यंवाग्रं दश सहस्राणि १००००, तस्य सर्वजीवानन्तकेन शतपरिमाणतया कल्पितेन भागे हुते शतं लब्धं १०० द्वितीयप्रतियोगिपुलाचरणपर्यंवाग्रं नव सहस्राणि नवशताधिकानि ९९०० पुर्वभागलब्धं शतं तत्र प्रक्षिप्तं जातानि दश सहस्राणि ततोऽसौ सर्व जीवानन्तकभागहारसम्धेन शतेन हीनभावहीन, 1 'असंखेज्जभागहीणे व' त्ति पूर्वोक्तकल्पितपर्यायराशेर्दशसहस्रस्य १०००० लोकाकाशप्रदेशपरिमाणेनासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन भागे हृते लब्धं द्विशती द्वितीयप्रतिमा पर पान " ० २५, उ० ६, ढा० ४४८ १२९ www.jainelibrary.org
SR No.003623
Book TitleBhagavati Jod 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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