Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
समन्तभद्र 'चतुष्टय समन्तमद्रस्य ' ( |४| १४० ) का उल्लेख किया है । ये दोनो देवनन्दी से कुछ समय पूर्व हो चुके थे । यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर का समय भी सर्वथा निश्चित नही है, किन्तु अनुश्रुति के अनुसार उन्हे विक्रमादित्य का समकालीन माना जाता है । विक्रम के नवरत्नो की सूची मे जिस क्षपणक का उल्लेख है उन्हे विद्वान् चन्द्रसेन दिवाकर ही मानते है । श्री राइस ने सिद्धसेन का समय पाचवी शती के मध्यभाग मे माना है, किन्तु चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ( ३७५४१३ ) और सिद्धसेन की समसामयिकता का आधार यदि सत्य हो तो सिद्धसेन को चौथी शती के अन्त मे मानना ठीक होगा । लगभग यही समय समन्तभद्र का होना चाहिए । श्री प्रेमी जी ने अपने पाडित्यपूर्ण लेख मे देवनन्दी के समय के विषय जो प्रमाण सगृहीत किये है उनकी सम्मिलित साक्षी से भी यही सूचित होता है कि आचार्य देवनन्दी लगभग पाचवी शती के अन्त मे हुए है । इस सम्बन्ध मे एक विशेष प्रमाण की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है । इसके अनुसार सवत् ६६० मे बने हुए दर्शनसार नामक प्राकृत ग्रन्थ मे कहा है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने दक्षिण मधुरा से ५२६ विक्रमी मे (४६९ ई०) द्राविड सघ की स्थापना की । इससे भी पूज्यपाद का समय पूवी शती के उत्तरार्ध मे सिद्ध होता है । इसी का समर्थन करने वाला एक अन्य प्रमाण है – कर्नाटक-कविचरित के अनुसार गगवशीय राजा अविनीत ( वि० स० ५२३ ) के पुत्र दुर्विनीत ( वि० स० ५३८, ईस्वी ४८२ ) आचार्य पूज्यपाद के शिष्य थे, अतएव पूज्यपाद श्वी शती के उत्तरार्ध के सिद्ध होते है । महाराज पृथिवीकोकण के दानपत्र मे लिखा है श्रीमत्कोंकण महाराजाधिराजस्याविनीतनाम्न पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारती निवद्धबृहत्कथेन किरातार्जुनीयपचदशसर्गटीकाकारेण दुर्विनीतनाममधेयेन अर्थात् अविनीत के पुत्र दुर्विनीत ने शब्दावतार नामक ग्रन्थ की रचना की थी। जैसे प्रेमी जी ने लिखा है शिमोगा जिले की नगर तहसील के शिलालेख मे देवनन्दी को पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार त्यास का कर्ता लिखा है । अनुमान होता है कि दुर्विनीत के गुरु पूज्यपाद ने वह ग्रन्थ रच कर अपने शिष्य के नाम से प्रचारित किया था । जैनेन्द्र व्याकरण उस श्रृंखला की पहली कडी है जिसमे गुप्तकाल से लेकर मध्यकाल तक उत्तरोत्तर नये-नये व्याकरणो की रचना होती चली गई । जैनेन्द्र ( पाचवी शती), चन्द्र ( पाचवी शती), शाकटायन ( नवमी शती का पूर्वार्द्ध), सरस्वतीकण्ठाभरण (ग्यारहवी शती का पूर्वार्द्ध) और प्रसिद्ध हेमशब्दानुशासन ( वारहवी शती का पूर्वार्द्ध) इन सबने उन्मुक्त मन से और अत्यन्त सौहार्द भाव से पाणिनीय व्याकरण की मूल सामग्री का अवलम्बन लिया। इनमे भी जैनेन्द्र व्याकरण ने भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण को छोड़कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रो के सबसे निकट रखा है। किसी भी प्रकरण के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्र ने पाणिनि सामग्री की प्राय अविकल रक्षा की है । केवल स्वर
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