Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३०५
इसी प्रकार 'अ' 'उ' में भी परिवर्तित होता है । प्राकृत मे यह प्रवृत्ति पाई जाती है, अपभ्र श मे नही है।
प्रहर >अ५० पहर>पुहर या पुहुर 'बेलि किसन रुकमणी' मे अपभ्र श रूप 'पहर' ही प्रयुक्त हुआ है
वधै मास ताइ पहर वधन्ति (छन्द १३) ५मसान > अप० मसाण > मुसाण (उपदेशमाला बालावबोध) आधुनिक राजस्थानी मे अपभ्र श 'मसाण' और प्रा प रा का 'मुसाण' दोनो प्रचलित है। 'मुसाणा' बहुवचन प्रयोग प्राय मिलता है। परवर्ती और पूर्ववर्ती 'उ' के कारण भी 'अ' 'उ' में परिवर्तित हो जाता है
गरुड> गुरुड ? (पचाख्यान)
दर्द >दुर्दुर कभी-कभी 'अ' का रूपात र 'अ' हो जाता है। मारवाडी मे ऐसे स्थलो पर 'ऐ' होता है।
अपभ्र श के आद्य 'अ' का लोप भी प्राय राजस्थानी मे होता है। यह प्रवृत्ति प्रा प रा से ही प्रारभ हो गई थी
अपभ्र श अच्छ>अछइ> छ। मारवाडी दूढाडी मे 'अइ', ऐ मे परिवर्तित हुआ है, 'छै' का प्रयोग लिग और वचन का अनुसरण करता है कुणछी (स्त्री०), कुण छै या 'कुण छ।' (पुलि०) । मात्मनक > अप० अप्पणउ>पणउ। तण का प्रयोग 'वेलि' मे है
कमलापति तणी कहेवा कीरति (छन्द-३) श्रुति के रूप मे 'अ' का आगम राजस्थानी की विशेष प्रवृत्ति कही जा सकती है। यह प्रवृत्ति भी प्रा प रा मे ही प्रारभ हो गई थी
गर्भ > गरम
जन्म >जनम 'वेलि' मे इस प्रकार की श्रुति के शतश उदाहरण हैं
अन्तर्यामी> अतरजामी
अदर्शन > अदरसणि आदि । अपभ्र श 'इ' के राजस्थानी मे निम्नलिखित परिवर्तन हुए है (क) 'इ' दुर्वल होकर 'अ' हो जाता है। (ख) ई ह्रस्व हो जाता है।
नीणि> अ५० ति>िमणि परन्तु पृथ्वीराज ने 'त्रिणि' = तीन का प्रयोग किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह अ५० के तिणि से ही अनुमत है । द्वित्त का सरलीकरण और 'इ' का पुन दीर्धीकरण