Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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शब्दकोश की प्राचीन पद्धति
सुनि दुलहराज
जैन आगम साहित्य मे द्वादशागी का प्रथम स्थान है । आयारो, सूयगडो आदि अग हैं । बारहवा अग है दृष्टिवाद | चौदह पूर्व इसी के अन्तर्गत हैं । सत्यप्रवाद और विद्याप्रवाद ये दो पूर्व शब्दो के अनुशासन से संबधित हैं । जब तक पूर्वधर रहे, तब तक अन्य शब्दानुशासन की आवश्यकता प्रतीत नही हुई । काल के प्रवाह मे दृष्टिवाद की परपरा लुप्त हो गई । केवल ग्यारह अग शेष रहे । वे लिपिबद्ध नही थे । वह प्रवचन काल था । सारा ज्ञान प्रवचन के माध्यम से सुरक्षित रखा जाता था । गुरु-शिष्य की परपरा सुदृढ थी । काल वीतता गया । आगम-युग का अन्त हुआ । आगमों को समझना समझाना दुरूह-सा होने लगा । मत व्याख्यासाहित्य लिखा जाने लगा । प्राकृत भाषा चल ही रही थी । लोग इसको समझते थे । आचार्यो ने प्राकृत भाषा मे नियुक्तिया और भाष्य लिखे ।
प्राकृत के युग का दीप टिमटिमा रहा था । आगम की प्राकृत व्याख्याए समझना भी कष्टसाध्य हो गया । संस्कृत का युग प्रारम्भ हो रहा था । कतिपय आचार्यों ने प्राकृत और संस्कृत इन दो भाषाओं का मिश्रण कर चूर्णि साहित्य
रचा।
उस समय तक कोश की परपरा नही थी । आगमो के साथ ही साथ शब्दज्ञान भी करा दिया जाता था । किन्तु जब ऐसे आचार्यो की परपरा विलुप्त हो गई तब कोश या व्याकरण को अलग से सिखाने की आवश्यकता महसूस हुई |
जैन परंपरा मे चूर्णिकाल तक कोश-ज्ञान के लिए अलग ग्रन्यो का निर्माण नही हुआ था। चूर्णिकार व्याख्या के साथ-साथ शिष्य को पर्यायवाची शब्दों का भी ज्ञान कर देते थे । शिष्य को पर्यायवाची शब्दों के लिए अन्यत्र भटकना नही पडता था । यह एक बात है ।