Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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४३८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की 4.म्परा
नयन्ते द्रान्ति मज्जन्ति दूयन्ते कूटयन्ति च । मार्गयन्तेऽभिधावन्ते कुहयन्ते मृजन्ति च ।। क्रीडन्ति स्यन्ति यच्छन्ति शीलयन्ति वमन्ति च । लुयन्ति मान्ति सीदन्ति क्रुध्यन्ति विलयन्ति च ।। तुष्यन्त्यन्ति पञ्चन्ति सान्त्वयन्ति विदन्ति च । मुह्यन्त्यन्ति नृत्यन्ति स्निह्यन्ति विनयन्ति च ।। नुदन्त्युच्छन्ति कर्षन्ति भृज्जन्ति विनयन्ति च । दीव्यन्ति दान्ति शृण्वन्ति जुह्वत्यगन्ति जाग्रति ।। स्वपन्ति विभ्यतीङ्गन्ति श्यन्ति दन्तितुदवि च । प्रान्ति सुन्वन्ति सिन्वन्ति रुन्धन्ति विरुवन्ति च ॥ सीव्यन्त्यन्ति जीर्यन्ति पिवन्ति रचयन्ति च । वृणते परिमृद्नन्ति विस्तृणन्ति पृणन्ति च ॥ मीमासन्ते जुगुप्सन्ते कामयन्ते तरन्ति च। चिकित्स्यन्त्यनुमन्यन्ते वारयन्ति गृणन्ति च ॥ एवमादिक्रियाजालमततव्याप्तमानस ।
शुभाशुभसमासक्ता व्यतिक्रामन्ति मानवा ॥"५७ इसी प्रकार क्रियाविशेषणो, उपसर्गो, नियाती, अव्ययो के एकल सन्निधि के अनेक उदाहरण मिलते हैं। 'सहार्यक' अव्ययो की एक-साथ प्रस्तुति का एक उदाहरण प्रस्तुत है
"रथिनो रथिभि साई तुरगास्तुरंगरमा।६८ ।
साक गर्गजा सना पानातत्त पदातिभि ॥" कही-कही शब्दो का लयात्मक और संगीतात्मक दृष्टि से भी योजन और निर्माण किया गया है। एक ही लय की पदशय्या के लिए 'वृत्तगन्धि गद्य' की शैली का आश्रय लिया गया है।
सक्षेपत , सवेदना, युगवोध तथा शिल्प की दृष्टि से इन जैन पौराणिक काल्यो मे महत्वपूर्ण शब्दयोजना की गयी है। इनके शब्दो मे अपने समय का देशकाल और शब्दप्रयोग का इतिहास समाया हुआ है जिसके साक्षात्कार के लिए अन्तर्दृष्टि और अध्यवसाय अपेक्षित है।
वस्तुत संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द सम्पत्ति' योजना पर सर्वागीण कार्य कर लेना एक व्यक्ति के बूते की बात नही है । एक-एक शब्द से परम्परा, प्रयोग, इतिहास, समाज, सस्कृति, धर्म, दर्शन, व्याकरण, व्याकरण भाषाविज्ञान, विम्बयोजना, अप्रस्तुत-विधान, शिल्प तथा सवेदना के विविध आयाम जुड़े हए है जिनका उद्घाटन अनेक विषयो के विद्वान् एक साथ बैठकर कर सकते हैं । इस कार्य के लिए शान्त मन स्थिति, लगन, समय तथा साधन अपेक्षित है।