Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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सस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पति ४२७
शब्दावली के प्रयोग में भी यही स्थिति देखने को मिलती है। चौरासी गणधरो के नामो का निर्देश रविपेण नही कर पाये थे तो इस कार्य को जिनसेन ने 'हरिवपुराण' मे पूरा कर दिखाया ।" जिनेन्द्र के एक सहस्त्र आठ नामो को पपुराणकार और हरिवशपुराणकार नहीं गिना सके तो उन्हे आदिपुराणकार ने गिना दिया 1१५
वर्णाश्रम-स्थिति, पट्याम तथा ग्रामनगरसनिवेशपरक शब्दावली का रविषण पूर्ण प्रयोग नही कर पाये तो इसे जिनसेन ने आदिपुराण मे कर दिखाया। इस प्रकार हम देखते है कि शब्द-सम्पदा के प्रयोग मे चारो कवियो मे एक तालमेल है । प्रत्येक कवि ने पूर्व-परम्परा प्राप्त शब्द-निधि को अपना योगदान देकर समृद्ध करने की चेष्टा की है।
इन चारो कवियो मे विभिन्न क्षेत्रो से सम्बद्ध शब्दो का चयन करके प्रसगानुसार एक साथ ही उनका प्रयोग करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। श०६-प्रयोग के प्रति ये जागरूक है। अवसरानुसार अपने शब्द-वैभव का ये अपने काव्य मे नियोग करते है अथवा अपने शब्द-वैभव का उपयोग करने के लिए ये अवसर निकाल लेते है भले ही काव्य की सरसता कही-कही घबरा उठे ? उदाहरणार्य स्थानवाची शब्दो का परिगणनात्मक शैली मे सभी कवियो ने एक स्थान पर उल्लेख किया है
१ रविण
सन्ध्याकार सुवेल५च मनोलादो मनोहर । हसद्वीपो हरिोध समुद्र काचनस्तया ।। अर्धस्वर्गोत्कट५चापि निविशा स्वर्गसन्निभा । શીર્વાબ રક્ષસ પુર્મહાવૃદ્ધિપરા છે
आवत विघटा भोदा कटस्फुटदुग्रहा । તરતીયાવની રત્નદીપાવામાન્તિ રાક્ષસૈ " पुरखेटमटमेन्द्र विषयादीश्वराच ये। वशत्व स्थापितास्ताम्या कांश्चित्तान् कीर्तयामि ते ।। ऐते जनपदा केचिदार्या म्लेच्छास्तथा परे । विद्यमानद्वया केचिद् विविधाचारसम्मता ।। भीरवो यवना कक्षाश्चार वस्त्रिजटा नटा। शककेरलनेपाला
मालवारुलशवरा ।। વૃષપર્વદ્યાશ્મીરા ફિડિવાવષ્ટવર્વા ! त्रिशिरा पारशैलाश्च गौशालोसीन रामका ॥