Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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४२६ गस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा
'हरिवशपुराण' के का पर्वो' के स्थान पर सों- से अपनी कृति का विभाजन करते है तथा अपनी रचना को 'काव्य' स्वीकार करते हैं। कही विपरीत लक्षणा से इसकी काव्यात्मकता व्यजित होती है। 'आदिपुराण' के कत्ता तो स्पष्ट कवि, कविता, काव्य तथा अलकार आदि की चर्चा करते हुए अपने ग्रन्य को 'महाकाव्य' स्वीकार करते हैं। गुणभद्र भी 'अपहस्तितान्यकाव्य और 'मिच्याकविदर्पदलन' आदि पदो से अपनी रचना को काव्य स्वीकार करते है । गुणभद्र के शिय लोकसेन भी जिनसेन, गुणभद्र तथा स्वय को 'कवि' कहते है। इन सभी कवियो ने पौराणिक कथ्य को काव्य-शिल्प मे मवलित करके अपने साम्प्रदायिक और धार्मिक दायित्व के साथ-साथ साहित्यिक और सास्कृतिक दायित्व का निर्वाह किया है। 'पुराण' नामधारी होने से इन ग्रन्थो के प्रति श्रद्धा होना स्वाभाविक है और श्रद्धापूर्वक इनका पारायण करने पर पाठक इनमे एक ही स्थान पर इतना कुछ पा लेता है जितना और कई स्थानो पर मिलना समभव है। न तज्ज्ञानं न तच्छिल्य न सा विद्या न सा कला । जायते पन काव्यागमहो भारो महान् को. ॥' जैसी उक्तियां इन काव्यो के विषय मे अन्वर्य सिद्ध होती हैं । लगभग २०० वर्षों के अन्तराल (६८० ई० से ८६७ ई०) मे आनुपूर्वी से
रचित इन पौराणिक काव्यो का सामाजिक, सास्कृतिक, भाषावैज्ञानिक, शैली ___ शास्त्रीय, धार्मिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक तथा दार्शनिक दृष्टिकोणो से अभी
तक उतना अध्ययन नहीं हो पाया जितना कि होना चाहिए । अध्ययन की अनेक तरगोसे इनके विषय मे महत्त्वपूर्ण परिणाम निकल सकते है।
प्रस्तुत निन्बध मे हम इन काव्यो की शब्द-सम्पत्ति का एक सर्वेक्षणात्मक परिचय देने का प्रयत्न करेंगे । इन चारो ग्रन्थो का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थ पूर्ववर्ती का पूरक है । साहित्य, समाज, जीवन, कला, दर्शन, धर्म, देश-काल आदि से सम्बद्ध जिस शब्द-सम्पत्ति का उपयोग पूर्ववर्ती कवि ने किया है उसमे उत्तरवर्ती कवि ने अपने काल तक वृद्धि गत शब्द-सम्पत्ति को और जोड दिया है। उदाहरणार्थ, रविपेण 'समवसरण' का वर्णन करते समय जिन पारिभाषिक शब्दो को छोड गये थे उनका हरिवशपुराण' कार' तथा 'आदिपुराण' कार ने उपयोग किया। रविषेण केकया की कलामो की चर्चा करते हुए संगीत-शास्त्रपरक शब्दावली मे जिन शब्दो को निविष्ट नहीं कर पाये उनका प्रयोग जिनमेन ने अपने 'हरिवशपुराण" मे किया है। सामुद्रिक-शास्त्र परक शब्दावली का प्रयोग रविपेण नही कर पाये थे, जिनसेन ने 'हरिवंशपुराण' मे इसका प्रयोग किया। क्रियामन्च तथा कर्मकाण्ड परक जिस शब्दावली का प्रयोग 'पपुराण' तथा 'हरिवंश पुराण' मे नही हो सका उसका प्रयोग 'आदिपुराण' मे दृष्टिगत होता है । क्षेत्र-काल-परक शब्दावली का जितना प्रयोग 'पपुराण' मे हुआ उससे कही अधिक 'हरिवशपुराण' और 'आदिपुराण' मे हुआ है । नामपरक