Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३३८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा द्वितीया ब० व० मे इसके क्रमश 'तुम्हें और तुम्हेई रूप होत थे। तृतीया एकवचन, सप्तमी एक वचन और द्वितीया एक वचन मे ५६' और 'तइ' प्रयोग प्रचलित थे। तृतीया बहुवचन मे 'तुम्हेहि', पचमी एक वचन और पठी एक वचन मे तउ और तुज्झ आदेशो का कथन हेमचंद्र ने किया है।
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अपभ्रंश तुहुँ>तूं हो गया है। मारवाडी मे तुहँ का 'ह', 'त' मे मिलकर उसे महाप्राण बना देता है, इस प्रकार 'यू' रूप बनता है। वहुवचन मे 'तम', यम, तुम्हे, रू५ प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में पाए जाते है । आधुनिक राजस्थानी मे 'था' और 'थे' रूप चल रहे है ।
अपभ्रश के प्रश्नवाचक तया अनिश्चयवाचक सर्वनामी के लिए हेमचंद्र ने 'किम काइ कवणी वा' सून दिया है । अर्थात् अपभ्र श मे किम् के स्थान पर का और कवण आदेश विकल्प से होते हैं । अपभ्र श मे इनके निम्नलिखित प्रयोग मिलते
હર્તા-ર્મ
सवध
--कवणह
વિવધુ कोई, को-वि
अधिकरण
कवण)
अधिकरण
(काई
कहिं ।
करण कवणएं,
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे कवण, कउँण, कूण, कुण, काइ, काई रूपो के । उदाहरण मिलते हैं। माध्यमिक राजस्थानी की साहित्यिक कृति वेलि मे
का को, कवण, केड, किणि, किण, कुण,
कर्म किणि, किण मिलते है १ स्त्रीपति कुण सुमति पूझ गुण जु तवति
___ तारुकवण जु समुद्र तर। पखी कवण गयण लगि पहुचे।
कवण रक करिमेह कर। (६) २ काइ इवडा ह० निग्रह किया (२८८)
आधुनिक राजस्थानी मे 'कवण' का 'कुण' और 'कूण' वाले रूप ही प्रचलित है। यह परिवर्तन प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे ही घटित हो गया था । वेलि' मे भी 'कुण' मिलता है। मेवाडी मे 'कूण' चलता है, टूढाडी मे 'कुण'। 'काई' का प्रयोग राजस्थानी के सभी रूपो मे किचित् अतर के साथ किया जाता है । मेवाडी मे कई/कई चलता है।