Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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४०२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
विलियम हटर के नाम इस दृष्टि में उल्लेख्य है। हिन्दी मे हिन्दीभापा-कोश १८६२ ई० मे छपा। सभवत सबसे पहला हिन्दीभापा-कोण --जिसमे रोमन लिपि मे हिन्दी-अगरेजी, अगरेजी-हिन्दी शब्दार्य दिए है (फर्गुसनकृत) अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे लदन से प्रकाशित हुआ और तदनन्तर यह 4-परा लगभग अटूट चलती रही है । मन् १८६४ ई० मे 'श्रीधरमापाकोश' प्रकाशित हुआ। इसके चार वर्ष पूर्व 'अभिधान-राजेन्द्र' का सियाणा नगर में सूत्रपात हो चुका था। वैसे यूरोप मे कोश-रचना एन्सायक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के साथ आरभ हुई। इसके बाद यह परम्परा अविच्छिन्न बनी रही, जिसने आगे चलकर भारतीय कोश-परम्परा को प्रभावित किया। इस परम्परा मे हिन्दी मे कई विशिष्ट कोश बने । यिसा रस (पर्याय-कोण) की परम्परा भारत मे नई नहीं है, किन्तु इधर आधुनिक पद्धति पर पर्याय-कोशो के क्षेत्र में प्रशस्त प्रयत्न हुए है। विख्यात हिन्दी-कोशकार स्व० रामचन्द्र वर्मा ने वर्षों पर्यायको विज्ञान पर काम किया है । अगरेजो ने तो शब्दकोशो के क्षेत्र मे अद्वितीय काम किया है, उन्होंने भारतीय पौर और दलाल-भाषाओ (आगेट्स) तक के कोश बनाए हैं। प्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वे मे इनकी चर्चा की है।
२ जैन कोश-परम्परा का आविर्भाव १९वी शताब्दी के नवें दशकान्त से मानना चाहिए। इस दृष्टि से 'अभिधान-राजेन्द्र' प्रथम मानक पूर्वज हरता है। इसके बाद कई कोश आए, किन्तु इतना बृहत् कोश नही बनाया जा सका। प्राकृत-अर्द्धमागधी के इस प्रथम पारिभापिक शब्दकोश के आरभिक पृ०० हिन्दी मे है किन्तु शब्द-विवृत्तिया सस्कृत मे हैं ।प्रश्न उठ सकता है कि आखिर इतने शब्दकोशो की आवश्यकता ही क्यो हुई ? बात यह है कि किसी भी शब्द के कई प्रयोगार्थ हो सकते है । एक ही शब्द विभिन्न प्रकरणो और मदर्भो मे भिन्न-भिन्न अर्थ रख सकता है, वस्तुत ०८ की इस तरह से विकसित आर्थी छवियो और भगिमाओ को भली-भाति समझना अतीव दुष्कर कार्य है। शब्द-व्यक्तित्व कई-कई काल-पों मे दवा रहता है । उसकी इन आर्थी विवक्षाओ को कोश की अनुपस्थिति ऐ जानना कठिन ही होता है। कोश जब भी प्रकाश मे आता है अपनी पूर्ववर्ती साहित्य-सपदा को स्वीकार करता है । उसकी सामग्री का प्रधान स्त्रोत यही होता है। इसके विना वह एक कदम भी आगे नहीं बढ सकता । इस तरह वह अपने पूर्व कालीन और समकालीन प्रयोगार्थों पर ही अवलम्बित रहता है। किसी कोश को शब्दो का एक व्यापक सूचीकरण मात्र मान लेना बहुत बड़ी भूल है, क्योकि शब्दो की तालिका देना कोश नहीं है, वस्तुत एक कोशकार को शब्द की अन्तरात्मा मे गहरे पैठना होता है और उसके अन्तर्मुख व्यक्तित्व के जाने-अजाने सारे अशो, मुद्राओ और भगिमाओ को देना होता है।
३ शब्दकोशो की अनुपस्थिति मे अर्थसप्रेषण लगभग असभव ही होता है,