Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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४०० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
१३. अन्य कोग
उपर्युक्त कोशो के अतिरिक्त कुछ और भी छोटे मोटे कोश जन विद्वानों ने तयार किये है। उनमे निम्नलिखित उल्लेखनीय है। श्री वलगी छगनलाल का 'जन कक्को' अहमदाबाद मे सन् १८१२ मे प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्राकृत शब्दो का गुजराती में अनुवाद दिया गया था। इसी तरह एच० आर० कापटिया का English-Prakrit Dictionary के नाम से एक कोश सूरत में सन् १९४१ मे प्रकाशित हुआ था। यहा हम डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर द्वारा संकलित और सम्पादित विद्व दिनोदिनी' का भी उल्लेख कर सकते है, जिसमे उन्होने मस्कृत, पालि, प्राकृत हिन्दी और गुजराती साहित्य में उपलब्ध प्रहेलिकाओ का संग्रह किया है । इसका प्रकाशन अमोल जैन ज्ञानालय, धूलिया की ओर से सन् १९६८ मे हुआ था। इसमे सस्कृत, प्राकृत साहित्य मे उपलब्ध कुछ और भी प्रहेलिकाओ का सग्रह कर आकार को कुछ और भी बढाकर दिया जाता तो कदाचित् वह अधिक उपयोगी हो जाता। ___इस प्रकार आधुनिक युग में अनेक जैन विद्वानो ने विविध प्रकार के कोशग्रथो को तैयार किया, जो अध्येताओ के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । यह। हमने कतिपय कोथो का ही उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त कुछ और भी छोटे-मोटे अनेक कोश नयो की रचना जैन विद्वानो ने की होगी पर उनकी जानकारी हमें नहीं हो सकी। यहा विशेष रूप से ऐसे कोश-ग्रयो का उल्लेख किया गया है जिनका सबध प्राकृत और जैन साहित्य मे रहा है। संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, अग्रेजी आदि भापाओ के जैन विद्वानो द्वारा लिखित कोश इस सीमा से बाहर रहे है। जैनप्रय सूचियो को भी हमने जानबूझकर छोड़ दिया है क्योकि आधुनिक दृष्टि से वे कोशो की परिधि मे नही आती । हाँ, यदि हम को का सकीर्ण अर्थ न कर उसका प्रयोग विस्तृत अर्थ मे करें तो निस्संदेह कोशकार एव कोशपथो की एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है।
सदर्भ
१ अभिधान राजेन्द्रकोश, भूमिका, पृ० १३ २ वही। ३ जैसे 'पेइय' द की व्याख्या में प्रतिमा-शतक नामक सटीक संस्कृत प्रथ को नादि से __ अत तक उद्धृत किया गया है । इस ग्रथ की श्लोक संख्या करीव पाच हजार है। ४ पाइयसहमहण्णव, द्वितीय संस्करण, भूमिका, पृ० १३-१४ ५. अभिधान राजेन्द्रकोश, भूमिका पृ० १३-१४ ६ पाइयसहमहण्णव, भूमिका, द्वितीय सस्करण, पृ० १४ ७ जैनेन्द्र-सिद्धान्त-कोश, भाग १, प्रास्ताविक ।