Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत - प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा
(घ) जैनलक्षणावली, २ भाग बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, दिल्ली-६
१६७२-१९७३ ।
अभिधान राजेन्द्र यह १९वी शताब्दी के अन्त मे सपादित प्राकृत-मागधी शब्दी का एक बृहद् मानक कोश है, जिसकी शब्द-विवृत्तिया संस्कृत मे है और प्राथमिक जानकारिया हिन्दी मे दी गई है । जब यह कोश अपने सकलन-संपादन के दौर से गुजर रहा था तब हिन्दी शब्दकोशो की परम्परा का आरम्भ हुआ हुआ ही था । हिन्दी मे भी उन्नीसवी शताब्दी मे कोश के लिए 'अभिधान' पर्याय प्रयुक्त था। श्रीधरभाषाकोप (१८९४ ई० ) की भूमिका मे एक वाक्य आया है 'एक झापा का अभिधान लिखना समयानुसार उचित है २५ । प्रसन्नता की बात है कि 'अभिधान-राजेन्द्र' की प्रस्तावना हिन्दी भाषा मे लिखी गयी है । " आभारप्रदर्शन, ग्रन्थकर्ता का परिचय, आवश्यक कतिपय सकेत इत्यादि भी हिन्दी मे ही दिये गये है । इसमे इस तथ्य की सूचना नही है कि प्रस्तावना कब लिखी गयी किन्तु लगभग तय ही है कि यह बीसवी शताब्दी के प्रथम दशका मे कभी लिखी गयी है । इससे ऐसा लगता है कि तब तक हिन्दी मे कोश-रचना की परम्परा इतनी प्रशस्त नही हो पायी थी कि 'अभिधान-राजेन्द्र' जैसे महाकोश को वह બ્રેન પાતી, સનિ सभवत इसकी रचना हिन्दी की अपेक्षा संस्कृत मे हुई है, सभव है और भी कारण रहे हो किन्तु प्रमुख कारण यही प्रतीत होता है । लगता है मुद्रण-सबधी या सपादन सबधी किसी कारण से भी ऐसा हुआ हो। कोई धार्मिक कारण भी हो सकता है । प्रकाशन सबधी एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इसका द्वितीय भाग प्रथम की अपेक्षा ज्येष्ठ है प्रथम १९२३ ई० और द्वितीय १९१० मे प्रकाशित हुआ है । मभव है इस घटना की पृष्ठभूमि पर कोई सपादन या मुद्रण-मबधी कठिनाई रही हो। इस महाकोश का सम्पादन श्रीमद्विजय राजेन्द्रमूरि द्वारा सियाणा ( राजस्थान )
आश्विन शुक्ल २, वि० स० १९४६ मे हुआ और १४ वर्षों के अविश्रान्त परिश्रम के बाद चैत्रशुक्ल १३, वि० स० १९६० को सूरत, गुजरात मे सम्पन्न हुआ । यह ७ वृहद् जिल्दो मे प्रकाशित एक विशाल कोश है । महाकोशकाल की हिन्दी कैसी थी, इसका एक नमूना ग्रन्यकर्त्ता की जीवनी से प्रस्तुत है "श्रीविज जयरत्नसूरिजी महाराज तक तो कोई आचार्य पालखी मे न बैठे, परन्तु 'लघुक्षमासूरिजी' वृद्वावस्या होने से अपने शिथिलाचारी साधुओ की प्रेरणा होने पर बैठने लगे | उनी रीति कायम रखी कि गाम में आते समय पालखी से उतर जाते थे, तदन्तर 'दयामूरिजी ' तो गाव नगर मे भी बैठने लगे । ३७ इस हिन्दी - शैली की तुलना 'श्रीवरभापाकोप' की भूमिका के अन्तिम अश से करे "प्रकट हो कि निवाय मेरे उक्त कोप गोवर्द्धन उपनाम मान त्रिपाठि कान्यकुब्ज निवासी की पनि नजीराबाद शहर लखनऊ मे भी ग्राहक जनो को मूल्य प्रेपित करने पर प्राप्त हो सकेगा।"
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