Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
View full book text
________________
१६वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४०३
इसीलिए विशिष्ट ज्ञान-क्षेत्रो मे विशिष्ट अध्ययन के निमित्त विशिष्ट शब्दकोश) की जो विषय-कोप ही होते है आवश्यकता बनी रहती है। जो अर्थविज्ञान के अध्येता है, वे अर्थ की जटिलताओ को भली-भाति जानते है, और इस तथ्य से परिचित होते है कि किसी भी शब्द का अर्थ सुस्थिर नही रहता, उसमे कमोवेश अर्थपरिवर्तन की प्रक्रिया सक्रिय रहती ही है। जो शब्द कल शाम तक एक विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त था, सभव है किसी पारिभापिकता के कारण वही दूसरी शाम अपने अर्थ मे सीमित हो उठ । अर्थ-सकोच, अर्थ-विस्तार और अर्थ-परिवर्तन की कुछ प्रमुख दिशाए हैं । अर्थविज्ञान का क्षेत्र विभिन्न परिवर्तनों पर विचार करना है, किन्तु जहा तक धर्म या दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली का सवाल है, वह रूढ होती है और उस पर अर्थ की परिवर्तनशीलता का मदगामी प्रभाव पड़ता है। कई ऐसे शब्द है, जो लोकव्यवहार मे कुछ और, विशिष्ट ज्ञानक्षेत्र मे कुछ अन्य अर्थ रखते हैं, उदाहरणत 'सधि', 'गुण', 'रस', 'वृद्धि', 'वासना', 'प्रयोग', 'योग', 'ग्राम',
आगम', ऐसे शब्द है जो व्याकरण, राजनीति, मायुद, काव्य, पाकशास्त्र, गणित, विज्ञान इत्यादि मे एक और लोक मे उससे जुदा अर्थ रखते है । वास्तव मे शब्द के सम्यज्ञान के बिना कई गलतफहमिया होना सभव है। कई बार धर्म और दर्शन के क्षेत्र मे यही हुआ है। इस दृष्टि से जैन दर्शन के शब्दो का अध्ययन हुआ है। उसके कई शब्द अन्य भारतीय दर्शनो मे प्रयुक्त शब्दार्थ से भिन्न है, यथा---'धर्म', 'आकाश', 'उपयोग', 'अणु', 'आरभ', 'उल्लेखना', 'सम्यक', 'अनुप्रेक्षा', 'शिक्षा' । अत आवश्यक है कि ऐसे शब्दो की कालानुक्रमिक आर्थी मुद्राओ को स्पष्ट रूप मे व्याख्यापित किया जाए । एक कोशकार ही यह कार्य कर सकता है, वह वस्तुनिष्ठा से शब्दार्थ-अध्ययन करता है । वह शब्दार्थों का सकलयिता या सपादक होता है, अपनी ओर से न तो वह कोई अतिरजन करता है, और न ही अतिरिक्त प्रवेश । वह तो तथ्यो को ज्यो-का-त्यो प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति, विश्वसनीय और. प्रामाणिक होता है, इसलिए शब्दकोशो और कोशकारो का समाज को जो बहुमूल्य प्रदेय है, उसके प्रति अपार कृतज्ञता व्यक्त किये बगैर कोई विकल्प हमारे पास नही है।
४ आधुनिक पद्धति पर जैन कोशो की रचना का कार्य उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशको मे शुरू हुआ, किंतु प्रकाशन बीसवी शताब्दी के पहले दशक मे ही सभव हो सका। 'अभिधान-राजेन्द्र' सकलित १८६० ई० से १६०३ ई० के मध्य हुआ, किन्तु उसका प्रकाशन-कार्य १६१० ई० से पहले शुरू नहीं हो सका। इस कोश के सपादन-सकलन से पूर्व ही अगरेज भारत मे पूरी तरह स्थापित हो चुके थे, स्वभावत इस पर अग्रेजी कोश-पद्धति का प्रभाव है। यह कहना तो कठिन ही होगा कि राजेन्द्रसूरी ५वर और उनके सहयोगी कोशकार अगरेजी जानते थे, किन्तु यह सच है कि जो लोग कोश के प्रकाशन-महयोग मे तत्पर थे, वे अगरेजी भाषा