Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३४० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
कितु जब विशेषण क्रिया० वि० की भाँति प्रयुक्त होते हैं तो १ नपुसक एकवचन मे रहते हुए सभी कारको मे अपरिवर्तित रहते है।
अथवा २ समानाधिकरण विशेषण की तरह लिंग, वचन और कारक के अनुसार
रूप-रचना करते हैं। यह प्रवृत्ति प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे तो है ही, मारवाडी मे भी जीवित है। टेसीटोरी ने मारवाडी मे हमे, परो, वरो, दो विशेपणो का उपयोग करके एक प्रकार के Veibal intensives बनाये जाने का उल्लेख किया है।
सस्कृत व्याकरण के अनुसार तुलनासूचक सरचना मे जिस वस्तु से तुलना की जाती है उसका वाचक अपादान कारक मे होता है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे प्राकृत के तुलनात्मक रूपो को तर, यर प्रत्ययो के साथ प्रयुक्त किया है। तुलना के अर्थ मे प्रयुक्त अपादान परसर्ग निम्नलिखित हे---
पाहि,, पाहन्ति, तथा यकी और यी
उदाहरण १ तुझ नई जीव्या पाहिँ मरण रूईं तुझे जीवन से अधिक अच्छा
मरण है। २ समुद्र ना पाणी थक गाढउ घणउ – समुद्र के पानी से भी धना गाढा । ३ गुरु-थकी ऊँचाइ आसनि वइसइ = गुरु से भी ऊंचे आसन पर
बैठता है। परन्तु आधुनिक राजस्थानी मे 'सू' और 'उँ' प्रयुक्त होते है जो अपादान कारकीय परसर्ग हैं।
१ उण सू चोखो उनसे अच्छ।।
२ उणुं बीच अच्छी है = उनसे अच्छा है। इन 'सू' और उ का सवध अपभ्र श से पहले बतलाया जा चुका है।
ध्वनि के कतिपय और रूपरचना के विविध तत्वो के आधार पर यह स्पष्ट किया गया कि राजस्थानी कितने अश मे आज भी प्राकृत-अपभ्र श की परपरा को ग्रहण किए है। भाषावैज्ञानिको के मतानुसार 'भाषा चिर परिवर्तनशील है। यह परिवर्तन सभी स्तरो मे घटित होते हैं। यदि परपरा-स्यापन मे हम मूल रूप को ही
आधुनिक भाषा मे पाने का प्रयत्न करें तो भूल होगी, हाँ परिवर्तित रूप के परिवर्तन--चरणो का क्रमबद्ध सूत्र स्थापन आवश्यक है। भाषा के विकास के दौर मे प्रतिवेशिनी भाषाओ के प्रभाववश ऐसे तत्व भी आ जाते हैं जिनका मूल भापा से सबंध-स्थापन नभव ही नही होता। प्राकृत-अपभ्र श से राजस्थानी के विकास मे इन आगत तत्त्वो का ध्यान रखना आवश्यक है।