Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३६० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोच की परम्परा
बन गया। पाइयमहमहण्णव के लेखक प० हरगोविन्द दाम मेट ने मकी जो सटीक आलोचना की है वह इस मन्दर्भ में दृष्टव्य है।
परन्तु खेद के साथ कहना पडता है कि इसमे कर्ता को सफलता की अपेक्षा निष्फलता ही अधिक मिली है और प्रकाशक के धन का अपव्यय ही विशेप हुआ है। सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है इस ग्रथ को थोडे गौर से देखने पर यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत भाषाओ का पर्याप्त जान था और न प्राकृत शब्दकोश के निर्माण की उतनी प्रबल इच्छा, जितनी जन दर्शन शास्त्र और तर्कशास्त्र के विषय मे अपने पाहित्य प्रत्यापन की धुन । इसी धुन ने अपने परिश्रम को योग्य दिशा में ले जाने वाली विवेक बुद्धि का भी हास कर दिया है। यही कारण है कि इस कोश का निर्माण केवल ७५ मे भी कम प्राकृत जन पुस्तको के ही, जिनमें अर्धमागधी के दर्शन विषयक ग्रथो की बहुलता है, आधार पर किया गया है और प्राकृत को ही इतर मुख्य शाखाओ के तथा विभिन्न विषयो के अनेक जैन तथा जनेतर ग्रथो मे एक का भी उपयोग नहीं किया गया है। इससे यह को व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोश हुआ है। इसके सिवा प्राकृत तथा सस्कृत ग्रथो के विस्तृत अशो को और कही-कही तो छोटे वडे सम्पूर्ण ग्रथ को ही अवतरण के रूप उद्धृत करने के कारण पृ५८ सख्या में बहुत वडा होने पर भी, शब्द सध्या मे ऊन ही नहीं, बल्कि आधारभूत ग्रथो मे आये हुए कई उपयुक्त शब्दो को छोड देने से और विशेपार्यहीन अतिदीर्थ सामासिक शब्दो की भर्ती से वास्तविक शब्द मख्या मे यह कोश अति न्यून भी है। इतना ही नही, इस कोश मे आदर्श पुस्तको की, असावधानी की, और प्रेस की तो असख्य अशुद्धिया हैं ही, प्राकृत भाषा के अज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली भूलो की भी कमी नही है
और सबसे बढकर दो५ इस कोश मे यह है कि वाचस्पत्य, अनेकन्ति जय पताका, अटक, रत्नाकरावतारिका आदि केवल संस्कृत के और जन इतिहास जैसे केवल आधुनिक गुजराती ग्रथो के संस्कृत और गुजराती शब्दो पर से कोरी निजी कल्पना से ही बनाये हुए प्राकृत शब्दो की इसमे खूब मिलावट की गयी है, जिससे इस कोश की प्रामाणिकता ही एकदम नष्ट हो गयी है । ये और अन्य अक्षम्य दोषो के कारण साधारण अभ्यासी के लिए इस कोश का उपयोग जितना भ्रामक और भयकर है, विद्वानो के लिए भी उतना ही क्लेशकर है।" ___अभिधान राजेन्द्र कोश के कोशकार विजय राजेन्द्र सूरि तथा सशोधक दीपविजय और यतीन्द्र विजय है। उनके अभिवान राजेन्द्र कोश के सन्दर्भ मे सेठ की यह आलोचना नि सन्देह अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। कोश के निर्माण की सार्थकता यहा पूरी नहीं हो सकी इसके बावजूद इस विशालकाय कोश को विल्कुल निरर्यक भी नही कह सकते । जिस समय इस कोश का निर्माण हुआ है उस समय अर्धमागधी आगमो का प्रकाशन अधिक नही हुआ था और जो हुआ भी था वह सभी सुसपादित