Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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आधुनिक जन कोश ग्रन्थो का मूल्याकन ३६७ __जैनेन्द्र-सिद्धान्त-कोश
इसके रचयिता क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी है, जिन्होने लगभग २० वर्ष के सतत अध्ययन के फलस्वरूप इसे तैयार किया है । इसमे उन्होने जैन तत्वज्ञान, आचारशास्त्र, कमसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवश, आगम, शास्त्र व शास्त्रकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय आदि से सम्बद्ध लगभग ६००० शब्दो तथा २१०० विषयो का सागोपाग विवेचन किया है । सम्पूर्ण सामग्री सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश मे लिखित प्राचीन जन साहित्य के १०० से अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रथो से मूल सदर्भो, उद्धरणो तथा हिन्दी अनुवाद के साथ सकलित की गयी है। इसमे अनेक महत्वपूर्ण सारणिया और रेखाचित्र भी जोड दिये गये हैं, जिससे विषय अधिक स्पष्ट होता गया। हर विषय को मूल शब्द के अन्तर्गत ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही यह ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषय की प्रकृति के अनुसार उसके अर्थ, लक्षण, भेद-प्रभेद, विषय-विस्तार, शका समाधान व समन्वय आदि मे जो-जो और जितना-जितना अपेक्षित हो वह सव दिया जाय । प्रस्तुत शब्द कोश भारतीय ज्ञानपीठ से चार भागो मे ८ और १० प्वाइट मे प्रकाशित हुआ है। मुद्रण की दृष्टि से भी इसमे अन्य कोषों की अपेक्षा वैशिष्ट्य है । टाइप की मिन्नता से विषय की भिन्नता को पहिचाना जा सकता है। मूल उद्धरणो को दे देने से इस ग्रथ की उपयोगिता और अधिक बढ गयी है। वस्तुत यह सही अर्थ मे सदर्भ ग्रंथ बन गया है। इसमे अधिकाश दिगम्बर ग्रथो का उपयोग किया गया है। इसके चार भा। इस प्रकार हैं
भाग १ 'अ' से 'औ' वर्ण तक पृष्ठ ५०४ प्रकाशन काल सन् १९७० भाग २ 'क' से 'न' वर्ण तक , ६३४
॥ १६७१ भाग ३ 'प' से 'व' वर्ण तक , ६३८ ,
१९७२ भाग ४ 'स' से 'ह' वर्ण तक , ५४४
, १९७३ इतने छोटे टाइप मे मुद्रित २३२० पृष्ठ का यह महाकोश निस्सदेह वर्णी जी की सतत साधना का प्रतीक है । उनका जन्म १९२१ मे पानीपत मे हुआ। आपके पिता जयभगवान एडवोकेट जाने-माने विचारक और विद्वान थे। आपकी जिजीविषा ने ही सन् १९३८ मे आपको क्षयरोग से बचाया तया इसी कारण एक ही फेंफडे से आज भी अपनी साधना मे लगे हुए हैं। एम० इ० एस० जैसी उ4 उपाधि प्राप्त करने के बावजूद प्रवृत्ति पथ मे उनका मन नही रम सका और फलत १६५७ मे घर से सन्यास ले लिया और १६६३ मे क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। प्रकृति से अध्यवसायी, मृदु और निस्पृही वर्णीजी के कुछ अन्य ग्रथ भी प्रकाशित हुए हैं और हो रहे है, जिनमे शातिपथ-प्रदर्शक, नये दर्पण, जन-सिद्धान्त