Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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संस्कृत, प्राकृत तथ। अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य
घियऊरि
३७५
ददुर पाहोह
जेही जैसी
टीला
घृतपूर
पइहिउ प्रहृष्ट
पायोद ( समुद्र )
पहुल्ल प्रफुल्ल, फूल
इस प्रकार के शब्दों का अध्ययन बुद्धि का पूर्ण व्यायाम करा देता है । यह निश्चय करना बहुत कठिन है कि ये शब्द संस्कृत के भ्रष्ट रूप है अथवा प्राकृत के शब्दो का संस्कृत के साहित्य मे संस्कृतीकरण किया गया । पीटर्सन के विचार मे प्राकृत और वैदिक संस्कृत समानान्तर रूप में प्रवाहित रही है । डा० पुसालकर का यह कथन भी विचारणीय है कि भारतीय पुराणो की भाषा विषयक अनियमितताओ को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जन-बोलियो से प्रभावित
संस्कृत के पुराण आधे के लगभग प्राकृतत्व को सहेजे हुए हैं । इनके अध्ययन से यह निश्चय किया जाता है कि मौलिक रूप मे पुराण प्राकृत मे लिखे गये थे, जिन्हे हठात् संस्कृत मे अनूदित किया गया । प्राकृत भाषा को अपनाने की प्रवृत्ति का प्रभाव वैदिक ग्रन्थो मे लक्षित होता है । परवर्ती काल मे प्राकृतो का यह प्रभाव धार्मिक ग्रन्थो, महाकाव्यों और पुराणो पर भी परिलक्षित होता है ।" यह पहले ही कहा जा चुका है कि वेदो के समय मे प्राकृत वोली रूप में थी । बोलियो के प्रवाह . से आगत अनेक शब्द वेदो मे दृष्टिगोचर होते हैं । ऋग्वेद मे आगत कुछ प्राकृत शब्द इस प्रकार है
सन्यासज्य वचसी (सत्यासत्य वचन, म० ७, सू० १०४, म० १२ ), दूलभ (दुर्लभ, ४, ६, ८ ), चरु १५ (काष्ठपाल, ६, ५२, ३) - पत्तो (१०,२७,१३ ), अजगर (ऋक्प्रातिशाख्य, ५, ४, २२), मेह ( नियुक्त, २, ६, ४), इत्यादि । श्री चोकसी की यह मान्यता है कि प्राकृत का विकास शास्त्रीय संस्कृत से न हो कर वैदिक संस्कृत से हुआ । भारतीय वैयाकरण इसी तथ्य को स्वीकार करते है । " किन्तु भाषाविद् इस मान्यता से सहमत नही हैं । उनका कथन है कि द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति वैदिक या लौकिक संस्कृत से न होकर प्रथम स्तर की प्राकृतो से हुई है।" इस कथन की सचाई अब नवीन शोध व अनुसन्धानो से प्रमाणित हो चुकी है । प्राकृतो मे "ऋ" के स्थान पर जो "रि" मिलती है, उसका मूल निश्चित रूप से वैदिकयुगीन लोक बोलियो मे रहा है । दक्षिण भारत के अनेक शिलालेखो मे "ऋ" के स्थान पर "रु" मिलता है ।" आज भी दक्षिण तथा महाराष्ट्र के विद्वान् "संस्कृत" का उच्चारण 'सस्करुत' रूप मे करते हैं । यह लोक बोली के प्रवाह मे आज भी ज्यो का त्यो बना हुआ है । किन्तु प्रातिशाख्याकार ने इस उच्चारण को सदोष माना है ।" यही स्थिति 'रि' की है । किन्तु प्राचीन पाण्डुलिपियो तथा विदेशी भाषाओ मे लिखे गए संस्कृत-शब्दों के उच्चारण से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल मे भी 'ऋ' का उच्चारण अशत 'रि' के समान होता था ।" उत्तरकालीन भारतीय भाषाओ मे संस्कृत 'ऋ' के स्थान पर इकार तथा उकार वाली ध्वनियों के विकास से प्रतीत होता है कि