Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३७६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
अति प्राचीन काल से 'ऋ' के उपारण मे दोनो प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान रही होगी, यथा-धृत-धी, शृगाल-सियार, ऋक्ष-रीछ, परन्तु वृक्ष-रूख, पृच्छा-पूछ वृद्ध-बूढा । कतिपय वैदिक शाखाओ मे 'ऋ' का उच्चारण गत 'रे' के सदृश भी किया जाता था।०१ वस्तुत उत्पारण भिन्नता का कोई कारण अवश्य होता है। यह भिन्नता वोलियो मे विशिष्ट २५ से लक्षित होती है। इसी प्रकार वेद में आगत 'लागल' शब्द को जाँ प्रजिलुस्की मुण्डा भाषा का शब्द मानते है । ०१ संस्कृत का 'पिप्पल' तथा 'पिप्पलि' ग्रीक शब्द है । आज भी भारतीय ग्रामो मे 'पीपर' शब्द प्रचलित है जो कि ग्रीक पेपरी' से साम्य रखता है। १०३ ____ इस प्रकार के शब्दो का समावेश विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान तथा भारतीय श्रेष्ठियो के विदेश-व्यापार के कारण हुआ। ऋग्वेद का शाल्मलि (सेमल का वृक्ष, १०,८५, २०) और शिम्बल (सेमल का फूल, ३, ५३, २२)मुण्डा भाषा के शब्द माने जाते है। पक्षियो मे 'कपोत' (ऋग्वेद १०, १६५, १) जो दुर्भाग्यदाता अर्थ मे प्रयुक्त है, मुण्डा भाषा का शब्द है। यही हाल 'मयूर' (ऋक्० १, १६१, १४) का है । सम्भवत इसी ओर लक्ष्य कर शवर मुनि ने कहा था कि जिन शब्दो का आर्य लोग किसी अर्थ मे प्रयोग नहीं करते, किन्तु जिनका म्लेच्छ लोग प्रयोग करते हैं, जैसे कि----पिक, नेम, सत, तामरक आदि, उन शब्दो मे सन्देह हैं। ५ भौगोलिक दृष्टि से शिक्षा ग्रन्थो मे स्वरभक्ति का पारण जिस क्षेत्र मे निदिष्ट किया गया है, यह अर्धमागधी और अपभ्रश का क्षेत्र है ।१०६ इस प्रकार के अन्य तथ्यों का भी निर्देश किया जा सकता है, जिन सब के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राकृत वोलियो का प्रवाह निश्चित ही भिन्न रहा है । वे किसी शास्त्रीय भापा से कदापि विकसित नहीं हुई। डॉ० आल्सडोर्फ के अनुसार भारतीय आर्यभापा की सबसे प्राचीनतम अवस्था वैदिक ऋचाओ मे परिलक्षित होती है। कई प्रकार की प्रवृत्तियो तथा भापागत स्तरो के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि वोली ही विकसित होकर संस्कृत काव्यो की भाषा के रूप में प्रयुक्त हुई । अतएव उसमे ध्वनि-प्रक्रिया तथा अन्य अनेक शब्द वोलियो के लक्षित होते है । शास्त्रीय संस्कृत का विकास-काल चौथी शताब्दी से लेकर आठवी शताब्दी तक रहा है, किन्तु उन पर प्राकृतो का प्रभाव नि सन्देह रूप से है ।१०७
आ० आर्यभापाओ को प्राकृत की देन
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ के विकास में प्राकृतो की भूमिका अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। प्राकृतो के भाषा सम्बन्धी सर्वेक्षण की सुविधा के लिए हम उनके तीन विभाग कर सकते हैं प्रथम आगमो की प्राकृत, द्वितीय साहित्यिक प्राकृत और तृतीय उत्तरकालिक प्राकृत या अपभ्रश भापा । सर्वप्रथम हम जनागमो