Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३४६ सस्कृत-पाकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
विविध प्रकार की विद्याओ की शिक्षा दी थी। सभी कलाओ को उन्होने सिखाया था । ___ सस्कृत मे शब्दकोश की प्राचीनतम परम्परा वैदिक युग से ही प्रारम्भ हो जाती है । निरुक्तो की गणना वैदिक ग्रन्थ-समुदाय मे की जाती है । यद्यपि महर्षि यास्क कृत "नित" अत्यन्त प्रसिद्ध है, किन्तु उनके पूर्व भी कई निethका हो चुके थे । श्री दुर्गाचार्य ने चतुर्दश निरुक्तो का उल्लेख किया है ।१२ उनके रचयिताओ के नाम है--आग्रायण, औदुम्बरायण, औपमन्यव, आर्णवाम, कात्थक्य, कोष्टु कि, गार्य, गालव, तटीकि, यास्क, वाायणि, शतवलाक्षमौद्गल्य, शाकपूणि, स्थौलाष्ठीवि, कौत्स, चर्मशिरा, परुच्छेप, पारस्कर, भारद्वाज, भूताश काश्यप, मुद्गल भाग्यश्व, शाकटायन, शाकपूणिपुत्र, शाकल्य । इन चौवीस निरुक्तारी का उल्लेख यास्क ने अपने निरुक्त मे किया है। परन्तु इनमे प्रारम्भ के चतुर्दश निरुक्तकार थे, यह निश्चित है, किन्तु सम्प्रति उनकी कोई कृति उपलब्ध नहीं है। निरुक्त तथा निघण्टु वैदिक कोश रहे है । इनसे स्पप्ट हो जाता है कि वेदो की भापा शिष्टो की साहित्यिक भापा है । उसे मानकरूप अवश्य प्राप्त नही हुआ था, किन्तु प्रक्रिया सतत चालू थी । अतएव उनकी भाषा मे परिवर्तन लक्षित होते है । यहाँ तक कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डल तथा दशम मण्डल की भाषा मे अत्यन्त भेद परिलक्षित होता है । परन्तु प्राकृत मे निवद्ध आगम साहित्य के सम्बन्ध मे यह वात लागू नहीं होती। इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि आगम सीधे जन-भापा के प्रवाह रूप मे निवद्ध हुए है, किन्तु वे वैदिक संस्कृत से सर्वथा अछूते नही है । पालि पर प्राकृत की अपेक्षा सस्कृत का अधिक प्रभाव परिलक्षित होता है । ऐतिहासिक तथा भाषावैज्ञानिक प्रमाणो से यह निश्चित है कि वैदिक युग मे प्राकृत बोल-वाल की भाषा थी । जव सस्कृत एक पूर्ण तथा साहित्य की भाषा थी, तब भी प्राकृत बोलियां थी। कालान्तर मे जब प्राकृत साहित्य की भाषा बनी, तब सस्कृत वैयाकरणो के आदर्श (मॉडल) पर भाषा का निर्वचन करने के लिए विशेष नियम बनाने पडे । वैयाकरणो ने ही सस्कृत को प्राकृत भाषा मे ढालने के लिए वचन-व्यवस्था का आदेश किया और उन्होंने ही प्राकृत बोलियो को प्राकृत-अपभ्रश नाम दिए । यही कारण है कि प्रथम, द्वितीय शताब्दी तक प्राकृत बोलियो के प्रचलित रहते श०कोश की आवश्यकता प्रतीत नही हुई। जनता की भाषा जनता समझती थी। जनता के लोक जीवन मे प्राकृत प्रतिष्ठित थी। किन्तु साहित्य मे आरूढ होने के अनन्तर धीरे-धीरे उनको समझने मे भी कही-कही कठिनाई होने लगी। सस्कृत-साहित्य की स्पर्धा मे प्राकृत शब्दो मे बहुत तोड-मरोड होने लगी। इसलिए टीकाओ का युग आरम्भ हुआ। किन्तु प्राकृत आगम-ग्रन्थो की टीकाएं विक्रम की छठी शती से पूर्व की लिखी हुई नही मिलती। अत अनुमान यही किया जा सकता है कि पांचवी-छठी शदादी से पूर्व