Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३६
'कड है' - क्या है कोइ छै = क्या है
इसी प्रकार एम, केम रूप अपभ्रंश से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे आए है । माध्यमिक राजस्थानी तक ये रूप 'इम', 'फेम' आदि चलते रहे । १ स्रम कीधा विणु केम सरें २ कागल दीधो एम कहि
मे
(मेवाडी) ( ढूंढाडी )
आधुनिक राजस्थानी मे 'केम', 'एम' लुप्त हो गए है । इसके स्थान पर कई से बने रूप क्या अथवा 'कय्या' और 'अय्याँ' का प्रयोग होता है । आधुनिक राजस्थानी मे 'केम सरै' का रूपांतर 'कय्या चाले' होगा ।
वेलि मे
उपर्युक्त कतिपय उदाहरणो मे राजस्थानी मे प्राकृत- अपभ्रंश से किञ्चित् ध्वनिपरिवर्तन के साथ आगत सर्वनामो का स्वरूप सकेतित होता है । इस दृष्टि से यह कहना अनुचित न होगा कि सर्वनामो के ऐतिहासिक विकास की कहानी राजस्थानी के तीनो विकास चरणो मे भलीभाँति सुरक्षित है ।
विशेषण
विशेषणो के प्रयोग के विषय में उल्लेखनीय है कि प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे जो स्थिति थी, वही आधुनिक मारवाड़ी मे भी है । इनकी रूपरचना सज्ञा शब्दो के 'सदृश ही होती है तथा ये विशेष्य के लिंग, वचन आदि से प्रभावित होते है । स्त्रीलिंग विशेषणो के सदर्भ मे ध्यातव्य है कि वचन और कारक सबधी विशेषता इनमें नही होती, तथा 'ई' का रूपरचना - रहित रूप ही इनके लिए प्रयुक्त होता
है ।
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे यह प्रवृत्ति अपभ्रंश से आई है । पउमचरिउ
(वाइसवी सधि )
(
)
१ दिव्वइँ गन्वोदयाइँ
२ सुरसमर सहासे हि दुम्महेण दसरहेण
३ वित्तन्तु कहेप्पिणु णिरवसेसु
१ पीला भमर २ फल मोतियाँ प्रयोग मिलते है ।
किया
(न)
यह प्रवृत्ति सिद्ध है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे
१ विवेक-रूपीड हाथी उ
२ कष्ट रूपिणी सापिणी ३ घणइ आडवरि
(५६)
पहराइत
71
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( शीलभद्रचरित्र ) ( कल्याणमंदिर स्तोत्र) ( आदिनाथ चरित्र )
(वेलि १७) (,, ε१)