Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृति-अपभश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव
डॉ० कृष्णकुमार शर्मा
राजस्थानी-भाषा' ५६वध के 'राजस्थानी' पद को विशेष सावधानीपूर्वक प्रयुक्त करने की अपेक्षा है। इस पदव के राजस्थानी' पद का अर्थ आधुनिक वृहत्-राजस्थान नही है। परन् 'राजस्थानी भाषा' से तात्पर्य उस भापा से है, जिसका मूल भारत के इस पश्चिमी प्रदेश मे ५०० ई० से १००० ईसा तक प्रचलित जनभापा अपभ्र श मे है। इसी राजस्थानी भाषा का साहित्यिक रूप डिंगल' है।
राजस्थान की इस साहित्यिक भाषा डिंगल की दो अवस्थाओ का उल्लेख विद्वानो ने किया है । ईसवी सन् की १३वी शताब्दी से लेकर १६वी शताब्दी के अत तक के युग कोटसीटोरी ने प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का युग कहा है।' १७वी शताब्दी के प्रारभ से लेकर आज तक के समय को आधुनिक मारवाडी का युग कहा जाता है। इसी आधार पर इन दो कालो की डिंगल को 'प्राचीन डिंगल' एवं 'अर्वाचीन डिंगल' कहा गया। किन्तु ध्यान देने पर ज्ञात होगा कि अपने मूल से पृथक होने के समय से अब तक की राजस्थानी की तीन अवस्याएँ स्पष्ट है । एक वह जिसे 'प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी' नाम दिया गया है। यही रूप अपभ्र श का उत्तराधिकारी है। द्वितीय अवस्था वह है जो पृथ्वीराज रचित 'वेलि किसन रुकमणी री' मे मिलती है । 'वेलि' की भाषा मे ढाचा तो प्राचीन राजस्थानी का है, परन्तु माध्यमिक राजस्थानी मे विकसित कतिपय विशेषताए भी 'वेलि' की भाषा मे है। 'वेलि' साहित्यिक राजस्थानी मे रची गई है । तृतीय अवस्था वीरसतसई एव आधुनिकतम काव्यो, जसे--वादली, साझ आदि मे देखी जा सकती है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के उदाहरण 'मुग्धाववोधमौक्तिक' की भाषा मे है।
इस प्रकार कान्हडदे प्रवध', वेलि, वीरसतसई, वादली, साझ आदि रचनाएँ राजस्थानी के ऐतिहासिक विकास की सामग्री प्रस्तुत करती है। प्राकृत-अपभ्र श से आधुनिक राजस्थानी तक की विकास यात्रा का इतिहास इन रचनाओ के माध्यम से ही जाना जा सकता है। इसी दृष्टि से राजस्थानी के लिखित साहित्य