Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत- अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव
हुँ
तरु+आम्→तरु+हु सउणि +, सउणि + ह सहि
→
सूत्र मे 'हुँ' और 'ह' है, पर उदाहरणो मे " दिया गया है । स्त्रीलिंग सज्ञा शब्दो मे पष्ठी बहुवचन मे 'हु' आदेश होता है- 'यसामो हुँ' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में 'ह' प्रत्यय का प्रयोग रहा और संभवत सभी प्रातिपदिको के साथ समान रूप से प्रयुक्त होता था । पर बाद मे यह लुप्त हो और प्रातिपादिक ही पद के सदृश प्रयुक्त होने लगा । फिर भी 'अ अ' वाले रूपो के साथ इसका प्रयोग मिलता है । गद्य मे यह 'ह' वाला रूप नही मिलता, परपद्य में मिलता है जैसे
गया
वन > वनह
सुपन > सुपनह
कटक > कटकह
उपर्युक्त वन, सुपन, कटक आदि व्यञ्जनान्त प्रातिपदिक कहे गए है । स्वरान्त के साथ यह संधि में घुल गया । 'ई' और 'ऊ' वाले प्रातिपदिको मे 'ह' के अवशेष पाए जाते है और इसके निम्नलिखित रूप मिलते हैं
'बाँधिया हायीया'
'सोसइ तालुआ'
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे स्त्रीलिंग इकारान्त और उकारान्त प्रातिपदिको मे यह प्रत्यय एकदम छूट गया प्रतीत होता है । सबधकारक बहुवचन मे रूप तो एकवचन की ही भाँति होता है पर सानुनासिक होता है । अपभ्रंश में 'हूँ' होता था जिसके पूर्व का 'अ' विकल्प से 'आ' हो जाता था । इस प्रकार दो रूप बनते थे 'अहं' और 'आ' । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे 'अहं' और 'आह' सकुचित होकर आँ हो जाता है, जैसे
करहाँ,
वाहला
પામત
ધોડાં
चारित्रियाँ
३१६
वैसे 'गयाँह' और 'नयाँह' जैसे उदाहरण भी कही कही मिलते है
माध्यमिक राजस्थानी मे सबधकारक के लिए पृथक् से परसर्गों का प्रयोग
मिलता है
रो, को, चो, तण, तणो, तनि
इनके अतिरिक्त 'आं' और 'काँ' भी वैक्तिक प्रत्यय है ।