Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३५
कही 'ई' के परिवर्तित रूप 'ऐ' वाले भी। अतएव कर्मवाच्यीय रूपो को अपभ्र श __ स्रोत से ही मानना ठीक है।
प्रेरणार्थक रूप
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे प्रेरणात्मक क्रिया-रूप निम्नलिखित विधि __ और प्रत्ययो से निष्पन्न होते हैं
१ स्वरवृद्धि से 2सीटोरी ने इसमे मूल स्वर की वृद्धि मानी है। परन्तु मूल स्वर से उनका तात्पर्य क्या है, यह स्पष्ट नही किया गया।
(क) अतरइ> ऊतार
(ख) पडइ> पाड प्रयम उदाहरण मे द्वितीय अक्षर का स्वर दीर्घ हुआ है, द्वितीय मे प्रथम अक्षर का स्वर । परन्तु सामान्यत प्रथम अक्षर का स्वर ही वृद्धिगत होता है। क्योकि मर>मार३, मिलइ>मेल इ मे यही स्थिति है। 'तर' मे पहले ही प्रथम स्वर दीर्घ है अत द्वितीय अक्षर के स्वर की वृद्धि हुई लगती है। २ आव प्रत्यय से निष्पन्न प्रेरणार्थक रूप
आव प्रत्यय की व्युत्पत्ति अपभ्र श के आव प्रत्यय से है, बल्कि वही है। प्राकृत मे यह प्रत्यय है। इस प्रत्यय के योग मे रूपस्वनिमिक परिवर्तन होता है। क्रिया के प्रथम अक्षर का स्वर ह्रस्व हो जाता है, परन्तु यह सदेव नही होता
आयइन आव>अपाव बोल+ आव>बोलाव मानइ+ आव>मनाइ
लिइ + आव>ल्यावइ एक बात और ध्यातव्य है, यह प्रत्यय क्रिया रूप के बीच मे आता है। आ का एक सहरूपिम (allomorph) और है -अब जो प्रथम अक्षर मे दीर्घ स्वर वाली क्रियाओ के साथ आता है जैसे
મેન > મેતવ वीनइ>वानव
सीखइ> सीखव यह स्थिति प्राकृत-अपभ्र श से ही प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे आई है। उपर्युक्त उदाहरणो के मूल प्राकृत रूप 'पटुवइ', विण्णवई' 'मेल' आदि है, जो 'सिद्धहम' व्याकरण मे मिलते है। ३ आड-प्रत्यय से निर्मित रूप
उडा = उडाता है। जगाडइ = जगाता है।