Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३१
४ व्यजनान्त धातुओ मे बने त या--- न वाले सस्कृत कृदतो से बने रूप। इनमे एक धातु का अतिम व्यजन होता है, दूसरा संस्कृत प्रत्यय है। अपभ्र श मे इनका समीकरण हो गया । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे सरलीकरण होकर रूप प्रयुक्त हुए
भागउ, लागउ, छूटउ, दी65, आदि माध्यमिक राजस्थानी मे उ, ए, और 'यो' वाले रूप चलते रहे
आरभिया, अहिया, औछायो, उतारे, काढे, करेउ, आदि आधुनिक राजस्थानी मे यो प्रचलित है
गयो, पढ्यो, भण्यो कह यो, आदि '' पाला रूप 'धो' में परिवर्तित हो गया है
कीधो, खाधो, पीधो, दीधो आदि १ गोठ गया सब गेहरा (वीर सतसई १०) २ वा५ गयो ले माहिरी (, , ८६) ३ पूत महा दुख पालियो (.. , ११५) ४ नाराजण वाधावियो (, , २६)
इन उदाहरणो से यह स्पष्ट होता है कि अपभ्र श के 'उ', 'य' और ओ भूत कृत प्रत्यय ही आधुनिक राजस्थानी मे भी भूतकालिक रूपो का निर्माण करते हैं। भूतकृदन्त जव विशेषण की भाति प्रयुक्त होता है तो इसके साथ सहायक क्रिया का वर्तमान अर्थ मे निर्मित कृदन्त हूतउ' का प्रयोग पश्चिमी राजस्थानी मे होता है। जैसे गिउ हूँतउ = गया हुआ, इस हूँत के स्थान पर थकउ (थिक) भी मिलता है, जैसे 4ठी यकी= बैठी हुई, हपिउ थिकई = हपित हुआ आदि। अपभ्र श भूतकृदन्त के ऐसे प्रयोगो के साथ रहे:' का प्रयोग होता था। परन्तु यह रहइ' सातत्य का बोध कराता था।
भूतकृदन्त से सयुक्तकाल का निर्माण भी होता रहा है, जैसे १ आविउ छू इहा २ निद्रावसि हुई छह वाल ३ अख्या छू अन्हे ४ लोक भेला या छ
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का यह प्रयोग जिसमे-भूतकृदन्त +अवउँ, से सरचना हुई है, आधुनिक राजस्थानी मे पूर्णत चलता है। आयो छु, गयो छै, वा आयी छी आदि बोलचाल की भाषा के प्रयोग है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी से लेकर आधुनिक राजस्थानी तक भूत कृदत रूप कर्तरि सरचना मे तो आता ही है