Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३३२ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
१ प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी हर बोलिउ~~-मैं बोला २
. , करहउ भणिउ = करहा बोला ३ ढोला मारू रा दूहा दाढी गाया निसहभरि ४ वेलि क्रिसन रुकमणी री हूँ उधरी पाताल हूँ ५ आधुनिक राजस्थानी मू वोल्यो, मैं वोल्यो
प्राचीन प्रयोगो और यदा कदा आधुनिक राजस्थानी मे कर्मवाच्य संरचना में भूत-कृदन्त के रूपो का प्रयोग होता है ।
१ राजकन्या मई दीठी = मैंने राजकन्या देखी २ देवताए दुन्दुभी बजावी = देवताओ ने दुदुभी बजाई
अपभ्र मे भी ऐसे प्रयोग होते रहे है । उपर्युक्त प्रयोगों के अतिरिक्त क्रियार्यक सना के रूप मे भूतकृदन्त के प्रयोग होते हैं---
'यो काम कयी विना न चालसी' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी ऐसे प्रयोग हुए है १ पुण्य कय विना २ नासर्या पछी
पूर्वकालिक रूप
प्राकृत-अपभ्र श मे पूर्वकालिक अर्य मे 'ड', इउ, इवि और अवि ये चार प्रत्यय होते है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे 'एवि' और 'ई' प्रत्यय से पूर्वकालिक के रूप निप्पन्न होते ये
__ भणेवि, धरेवि, पणमेवि आदि
लेई, जाई इन 'ई' वाले रूपो के साथ 'नई' परसर्ग भी जोडा जाता रहा है
ફરી , વવી નર્ક, છડી નર્ક બાદ્રિ 'नई' के स्थान पर 'करी' परसर्ग भी प्रयुक्त किया जाता था
તેડાવી-રી, તેવી જ રીતે માહિ विलि' मे 'अवि' का प्रयोग किया गया है
__परमेसर प्रणवि प्रणव पुणि सरसति (१) 'इ' वाले रूप का उदाहरण यह है--
दसमास उदर धरि ले बरस दस (8) आधुनिक राजस्थानी मे 'ड' और 'ड' वाले रूपो के साय 'नई' परसर्ग युक्त सरचनाओ का प्रयोग होता है। नई का परिवर्तित रूप 'न' अथवा केवल 'न' है। 'वठ जाईन पर्छ आॐ' अथवा 'वठ जाइर आउ' आधुनिक प्रयोग हैं। अपभ्रश का अश 'ड' मे ही रह गया है, परसर्ग वाद का योग है । सीटोरी के अनुसार