Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३२२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
१ "समाज सुधार री लहर ₹ साय प्रवासी राजस्थानी लेखका वृद्धविवाह, दहेज, जीमण रै वार में जिकी रचनावा करी"
(जागती जोत पृ० ५५) २ अर टेम री नस पिछीणवो
वीया भी देश भगती है मिरकार री सोराई साल
નસવવી પૈસા નો વાનગી ३ जिको, किण रेई भाई
कि रै ई भतीजो किणरै ई काको
(वही पृ० ५२) निष्कर्ष ८५ मे कहा जा सकता है कि प्राकृत-अपभ्र श के विभक्ति प्रत्यय माध्यमिक राजस्थानी और प्रत्यल्प रूप मे उन्नीसवी शती की राजस्थानी में भी रहे। परन्तु आज की राजस्थानी मे सबध अर्य व्यक्त करने के लिए परसर्ग ही प्रयुक्त होते है, कही-कही शून्य भी । सर्वनामो के साथ भी यही री, री, री जुडते है- थारो, यारो, म्हारो, म्हारा, हारी, वणी री, वणी रा आदि आधुनिक राजस्थानी के सिद्ध प्रयोग है । एक उदाहरण देखे -
"यारो, म्हारो व्याव कोनी हो सके म्है विरजरी एक गूजरी
थारी जान री किण विध खातरी करस्यूँ" अपभ्र श मे सप्तमी एक व० मे प्रातिपदिक के अन्त्य 'अ' को 'इ' और 'ए' होते है । 'इ' और 'ए' मे मुक्त वितरण है, यह निश्चित नहीं है कि अ' का 'इ' कहाँ हो और 'ए' कहाँ )डि ने 14)
डसि-भ्यस्डीना हे-हू-हय सूत्र के अनुसार अन्त्य 'इ' और उकार को सप्तमी एकवचन मे 'हि' आदेश भी होता है । सप्तमी बहुवचन मे भिस्सुपाहि सूत्र से हिं आदेश होता है।
स्त्रीलिंग शब्दो मे सप्तमी एकवचन मे डि को 'हि' आदेश होने का विधान भी निहित है। हेमचद्र ने सस्कृत की डि विभक्ति को आधार रूप मे ग्रहण किया हैं। रूपवैज्ञानिक धारणा के अनुसार 'डि' वरूपिम है तथा इसके परिपूरक वितरणीय सहरूपिम निम्नलिखित है। डि~ इ/ए (मुक्त वितरण मे) अन्त्य 'अ' के परिवेश मे
हि अन्त्य इ और 'उ' के परिवेश मे हिं पहुवचन के हेतु
हि स्त्रीवाचक प्रातिपदिक के परिवेश मे अपभ्र श के उपयुक्त सहरूपियो मे दो ही रूप प्रमुख है हिँ (हि) और