Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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३०८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
सस्मरति >प्राकृत सभरड>अ५० सभलइ> माँभलइ । अपभ्र श मे प्राकृत __ 'र'>ल हो गया है। इसी सांभलऽ' का पूर्वकालिक रूप 'वेलि' मे प्रयुक्त मिलता है
रथ बैठा साँभलि अरथ (६६) स्मरण करने के अर्थ मे 'सभरइ' 'ढोला मारू रा दूहा' मे भी प्रयुक्त हुआ है ।
अपभ्र श का पदान्त अनुस्वार प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे तो सुरक्षित रहा पर वाद मे नही मिलता -
अ५० पल्लह]>वाहला मध्यवर्ती 'आ' मे प्राय अनुनासिक श्रुति के रूप मे आ जाता है--
ग्राम > गाँम
नाम आदि प्रयोग मिलते है। सामान्यत 'ज', 'य' मे परिवर्तित हुआ है---
अप० कहीज्जड >कहीजड>कहिया प्रा. प रा मे तो यह है ही, 'वेलि' मे 'कहिया' का प्रयोग है
कहिया मूं मैं तेम कहे (३०२) 'क' का धोपीकरण भी हुआ है
कातिक > कातिग
चातक > चातिग 'त' का 'प' हो जाता है
નીતવ> નીપવડ बेलि मे
जाणे वाद माँडियो जीपण (३) 'ह' यदि अन्त्य अक्षर के दो स्वरी के बीच आए और पदान्त का एक भाग हो तो प्राय उसका लोप हो जाता है । दोनो स्वर प्राय सयुक्त हो जाते है, पर कभी-कभी वैसे ही रह जाते हैं
___अप० करहह >करहाँ 'ढोलामारू रा दूहा' मे ये प्रयोग उपलब्ध है।
आद्य सयुक्त व्यजन और उसके बाद वाले स्वर के बीच मे कभी-कभी 'र'का बागम हो जाता है । बहुधा ग, त, प, भ और स के साथ 'र' का आगम होता है। यह प्रवृत्ति अपभ्र श मे भी थी और प्रा प रा मे भी।
गोध > गोहली>ोहली> गिरोहली> ग्रीधणी आधुनिक राजस्थानी मे भी यह प्रवृत्ति मिलती है।
अपभ्रश के द्वित्त व्यजन प्रा प, रा मे नियमत सरलीकृत हो गए है। यही प्रवृत्ति आगे भी रही है--