Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२१० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
था। अत डा० वैद्य ने कई पाण्डुलिपियो के आधार पर ग्रन्य का वैज्ञानिक सस्करण प्रकाशित किया है। इसके पूर्व वि० स० २००७ मे जगन्नाथशास्त्री होशिंग ने भी मूलप्रन्य और स्वोपज्ञवृत्ति को प्रकाशित किया था। इसमे भूमिका सक्षिप्त है, किन्तु परिशिष्ट मे अच्छी सामग्री दी गई है।
प्राकृतशब्दानुशासन मे कुल तीन अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय मे ४-४ पाद है । पूरे ग्रन्थ मे कुल १०३६ सूत्र है। यद्यपि त्रिविक्रम ने इस ग्रन्थ के निर्माण मे हेमचन्द्र का ही अनुकरण किया है, किन्तु कई बातो मे नयी उद्भावनाए भी हैं। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्याय के प्रथम पाद मे प्राकृत का विवेचन है। तीसरे अध्याय के दूसरे पाद मे शौरसेनी (१-२६), मागधी (२७-४२), पैशाची (४३-६३) तथा चूलिका पैशाची (६४-६७) का अनुशासन किया गया है । ग्रन्य के इस तीसरे अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पादो मे अपभ्र श का विवेचन है।
त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत व्याकरण मे ह, दि, स और ग आदि नयी सज्ञाओ का निरूपण किया है। तया हेमचन्द्र की अपेक्षा देशी शब्दो का सकलन अधिक किया है । हेमचन्द्र ने एक ही सूत्र मे देशी शब्दो की बात कही थी, क्योकि उन्होने 'देशीनाममाला' अलग से लिखी है। जबकि त्रिविक्रम ने ४ सूत्रो मे देशी शब्दो का नियमन किया है। प्राकृतशब्दानुशासन मे अनेकार्य शब्द भी दिये गये हैं। यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है। इससे तत्कालीन भापा की अन्य प्रवृत्तियो का भी पता चलता है । कुछ अनेकार्थक शब्द इस प्रकार निविक्रम ने दिये हैं
अमार = टापू, कछुआ ओहमनीवी, अवगुण्ठन
करोड = कोआ, नारियल, वल गोपी=सम्पत्ति, वाला आदि। इसी प्रकार त्रिविक्रम का अपभ्र श का अनुशासन भी महत्वपूर्ण है। क्योकि उन्होने हेम द्वारा उदाहृत अपभ्रंश उदाहरणो की संस्कृत छाया भी दे दी है। 440 सूत्र ३ ३ ३८ का उदाहरण
साबसलोणी गोरडी नवखी कवि विसगठि। भड़ पच्चलिउ सो मरइ जासून लाड कठि।। ५७ ।।
(हेम० ४२०३) [सर्वसलावण्या गौरी नवीना कापि विपनन्थि ।
भट प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठ] इत्यादि। इस तरह म कृत छाया द्वारा अपभ्र श पद्यो को समझने मे उन्होने सौकर्य उपस्थित किया है । त्रिविक्रम ने हेमचन्द्र के सूत्रो की सख्या घटाकर लाधवप्रवृत्ति का परिचय दिया है । अत कई दृष्टियो मे त्रिविक्रम का प्राकृत व्याकरणशास्त्र के विकास में योगदान है। इससे यह भी पता चलता है कि प्राकृत वैयाकरणो ने अपने समय की भाषागत प्रवृत्तियो को अनुशासित करने का पूरा प्रयत्न किया है।