Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास : २११
प्राकृतशब्दानुशासन पर टीकाए
त्रिविक्रम के इस ग्रन्थ पर स्वय लेखक की वृत्ति के अतिरिक्त अन्य दो टीकाए भी लिखी गयी हैं । लक्ष्मीधर की 'षड्भापाचन्द्रिका' एव सिंहराज का 'प्राकृतरूपावसार' त्रिविक्रम के अन्य को सुवोध बनाते है ।
(१) पड्भापाचन्द्रिका
लक्ष्मीधर ने अपनी व्याख्या लिखते हुए कहा है कि त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सरल करने के लिये यह व्याख्या लिख रहा हू। जो विद्वान् मूलग्रन्य की गूढ वृत्ति को समझना चाहते है वे उसकी व्याख्यारूप पड्भाषाचन्द्रिका' को देखें
वृत्ति विक्रमीगूढा व्याचिख्या सन्ति ये बुधा ।
पड्भापाचन्द्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् ॥ वस्तुत लक्ष्मीचर ने त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सिद्धान्त कौमुदी के ढग से तैयार किया है तथा उदाहरण प्राकृत के अन्य काव्यो से दिये है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे प्राकृत (महाराष्ट्री), शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभ्र श इन छह भाषाओ का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है। आगे चलकर इन छह भाषाओ के विवेचन के लिए अन्य कई ग्रन्य भी लिखे गये है। उनमें भामकवि पडभाषाचन्द्रिका', दुर्गणाचार्य पड्भाषारूपमालिका', तथा 'पड्भाषामजरी', 'पङ्भापासुवन्तादर्श,' 'पभाषाविचार' आदि प्रमुख हैं।"
(२) प्राकृतरूपावतार
सिंहराज (१५ वी शताब्दी) ने त्रिविक्रम प्राकृतव्याकरण को कौमुदी के ढग से 'प्राकृतरूपावतार' मे तैयार किया है। इसमें सक्षेप मे सज्ञा, सन्धि, समास, धातुरूप, तद्धित आदि का विवेचन किया गया है। सज्ञा और क्रियापदो की रूपावली के ज्ञान के लिए प्राकृतरूपावतार' कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। कही-कही सिंहराज ने हेम और त्रिविक्रम से भी अधिक रूप दिये है।५० रूप गढने मे उनकी मौलिकता और सरसता है।
क्रमदीश्वर-सक्षिप्तसार
हेमचन्द्र के बाद के वयाकरणो मे क्रमदीश्वर का प्रमुख स्थान है। उन्होने 'सक्षिप्तसार' नामक अपने व्याकरण ग्रन्थ को आठ भागो मे विभक्त किया है। प्रथम सात अध्यायो मे सस्कृत एव आठवे अध्याय 'प्राकृतवाद' मे प्राकृत व्याकरण का अनुशासन किया है। ग्रन्थ के इस स्वरू५ मे ही क्रमदीश्वर हेमचन्द्र का अनुकरण करता है। अन्यया प्रस्तुतीकरण और सामग्री की दृष्टि से उनमे पर्याप्त