Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान : २५५
यह दोनो स्वरूपो के बीच की जो भारतीय भाषा इतिहास की अवस्था है, उसको हम प्राकृत कह सकते हैं । प्राकृत मे 'प्रकृति' का अर्थ उन्होने आदर्श लिया है अर्थात् प्राकृत का आदर्श है सस्कृत ९
१९६० मे पोखमा विद्याभवन, वाराणसी से प्राकृत व्याकरण नामक ग्रन्थ निकला जिसके लेखक हैं मधुसूदनप्रसाद मिश्र । इसे हेमचन्द्र का आधार लेकर लिखा गया है। पुस्तक ग्यारह अध्यायो मे विभक्त है । सर्वप्रथम महाराष्ट्री के लक्षणो को स्पष्ट किया गया है और उसके बाद शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्र श को। बीच-बीच मे यया स्थान प्राकृतप्रकाश, कल्पलतिका आदि का भी उल्लेख किया गया है । सप्तम अध्याय मे कुछ विशिष्ट पदो को एकत्रित किया गया है और पादटिप्पणी मे विशेष सूत्रो का भी उल्लेख कर दिया गया है ।
डा० सुकुमार सेन का एक ग्रन्थ Comperative Grammar of Indo Aryan भारत की Linguistic Society के विशेष प्रकाशन के रूप मे १९६० मे सगोधित करके प्रकाशित हुआ है । उसी का हिन्दी रूपान्तर 'तुलनात्मक पालिप्राकृत-अपभ्र श व्याकरण' के नाम से प्रकाशित किया गया १९६६ मे (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद) । डा० सेन प्रकृति का अर्थ सस्कृत मानकर चलते हुए लगते है । उन्होने प्राग्भारतीय आर्य भाषा (१२०० ई० पू०) से क्रमश. प्रारम्भिक वैदिक १२००-८०० ई० पू० (साहित्यिक तथा बोलचाल का रूप), परवी वैदिक ८००-५०० ई० पू० (साहित्यिक तथा कथ्य रू५), सस्कृत-- ५०० ई० पू० (साहित्यिक और जन सामान्य) । प्रथम मध्य भारतीय आर्यभाषायें वौद्ध सस्कृन--२००-३०० ई०पू० (उत्तर पश्चिमी, पश्चिम मध्यवर्ती, पूर्व मध्यवर्ती और पूर्वी), द्वितीय मध्यवर्ती आर्यभाषाए (निय प्राकृत २०० ३०० ई , पालि २०० ई०पू० प्राकृत अपभ्रंश -(१-६०० ई० ) तृतीय मध्य भारतीय आर्यभाषाए अवहट्ट-६००-१२०० ई०)। यहा अपभ्र श को भारतीय आर्य भाषा के विकास की सीधी परम्परा मे बैठाया है और कहा है कि मध्य भारतीय आर्यभाषा का द्वितीय पर्व वस्तुत अपभ्र श का प्रारम्भिक पर्व है। वैयाकरणो द्वारा प्रस्तुत अपभ्र श इसके दूसरे पर्व का कुछ गढा हुआ रूप है। अपभ्रश का तीसरा पर्व आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का प्रारूप है और अवहट्ट या लौकिक कहा जाता है।८
डा० एस० एम० को ने १९४५ मे भारतीय विद्याभवन, बम्बई मे जो भाषण दिए थे, उनका प्रकाशन Prakrit Languages and their contribution to Indian culture के नाम से हुआ। उसी का हिन्दी अनुवाद 'प्राकृत भाषाए और भारतीय संस्कृति मे उनका अवदान' राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी जयपुर से (१९७२ मे प्रकाशित हुआ)डा० को ने भी प्राकृत को सस्कृत से उद्भूत माना है। उन्होने कहा है कि प्राकृत भापा मे सस्कृत की ही सीधी उपज है, जो स्थान और काल की दृष्टि से परिवर्तित और परिवधित होती रही