Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२८२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
दक्षिण तक जाने-आने का जो मध्य मार्ग था और जिसमे हिन्दुओ के परम उपास्य श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, वह मयुरा नगरी इस उत्तरापथ और दक्षिणापथ के मध्य मे पडती है। आज भी सुदूर दक्षिण के तीर्थयात्री जव उत्तर प्रान्तो के तीर्थों की यात्रार्य निकलते है तो वे उत्तर के बदरीनारायण, गगोती, और कैलाश की यात्रार्थ जाते-आते हुए मध्यवर्ती मथुरा मे अवश्य उतरते है। इस आवागमन से आज भी दक्षिणयात्री जमे इस शूरसेन देश की राजधानी मयुरा की वर्तमान भाषा हिन्दी से परिचित हो जाते है, उमी प्रकार श्री कृष्ण के समय इस देश में बोली जाने वाली शौरसेनी से परिचित हो जाते थे। __ अब हम ऊपर दिए गए प्रथम प्रश्न का समाधान करेंगे दि. जैन ग्रन्थो, अनुश्रुतियो एव दक्षिण मे प्राप्त अनेक शिलालेखो से यह सिद्ध है कि आ० भद्रवाई श्रुत-केवली के समय उत्तर भारत मे १२ वर्ष का भयकर दुकाल पडा था। अपने निमित्तज्ञान से जब आ० भद्रवा ने यह जाना कि निकट भविष्य मे ही भयकर दुष्काल पउनेवाला है तो अपने मधस्थ २४ हजार साधुओ को सम्बोधित करते हुए इस देश को छोडकर सुदूर दक्षिण देश मे चलने को कहा। उसमे से १२ हजार साधु तो उनके साय दक्षिण देश को चले गए। किन्तु शेप १२ हजार इधर के श्रावको के आग्रह और दुर्भिक्षकाल मे भी भिक्षा-सुलभता के आश्वासन पर स्यूलभद्र के नेतृत्व मे यही उत्तरभारत मे रह गये। ___ उक्त परिप्रेक्ष्य मे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि जो साधु भद्रवाहुश्रुतकेवली के साथ दक्षिण प्रान्त मे गये, वे प्राय अधीतश्रुत एव गीतार्य थे, क्योकि उस समय अगो और पूर्वो का ५०न-पाठन प्रचलित था। दक्षिण प्रान्त की तात्कालिक भाषाए आज के समान ही उत्तर भारत की बोलचाल की भाषा से सर्वथा भिन्न थी, फिर भी उबर के निवासी उधर के सूरसेन देश की वोली से आवागमन के कारण परिचित थे, इस कारण उक्त सघ के बहुश्रुतज्ञ साधुओ ने अपनी ही बोली सौरसेनी मे उपदेश देना प्रारम्भ किया और समयानुसार ग्रन्थ रचना करना प्रारम्भ किया। अत. प्रारंभ मे जिन आचार्यों ने शौरसेनी भाषा मे ग्रन्यो की रचना की, उनमे अधिकतर उत्तर भारत के थे। इन हजारो साधुओ के दक्षिण प्रान्त मे विचरण से, उपदेश देने से एव सत्सा से दक्षिण देशवासी भली भाति परिचित हो गये थे, अत दक्षिण देश में जन्मे हुए पीछे के दिगम्बर आचार्यों ने भी उसी सर्वाधिक समझी जाने वाली शौरसेनी भाषा मे ही अपने ग्रन्थो की रचना की।
(२) म प्रकार उth कथन से दूसरे प्रश्न का समाधान भी स्वयं ही हो जाता है । यत ५५चाद्वर्ती ग्रन्यकारो की मूल-परम्परा आ० भद्रबाहु तक पहुचती है, मत उनके संघस्थ साधुओ को जो वोलचाल की भाषा थी, और जिसे कि आज शौरसेनी नाम से कहा जाता है, उसी मे उन पीछे के दक्षिणी आचार्यों ने उत्तर