Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२८६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
उत्तर प्रान्तीय भद्रबाहु के मुनि सघ के दक्षिण मे जाने से यह भाषा वहा पर (दक्षिणी मदुरा तक) अच्छी तरह समझी और बोली जाने लगी थी। यही कारण है कि शेषगिरि राव जैसे अजैन दक्षिणी विद्वान् ने अपने लेख 'दी एज आफ कुन्दकुन्द' मे लिखा है कि मेरे पास तमिल साहित्य में और लोक बोली में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि जिस प्रकार की प्राकृत मे आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अन्य निवद्ध किये हैं, वह केवल समझी ही नही जाती थी, बल्कि आन्ध्र और कलिग प्रदेशो मे जन-सामान्य के द्वारा बोली जाती थी। (जन गजट, १८ अप्रैल सन् १९२२ पृ० ६१)
भाषा की दृष्टि से विचार करने पर यह कयन पूर्णरूपेण सत्य प्रतीत होता है। ___ आ० हेमचन्द्र ने सज्ञा शब्दो के जो सातो ही विभक्तियों में अनेक रूप दिये है, उनमे से शौरसेनी भाषा मे कुछ सीमित ही रूप अपनाये है, जो कि संस्कृत के साथ वहुत अधिक साम्य रखते है । यथा प्राकृत शौरसेनी । संस्कृत प्राकृत | शौरसेनी सस्कृत ठाणाइ ठाणाणि स्यानानि | एए । एदे । एते। वच्छाओ | वच्छादो वृक्षात् | अच्छीइ | अच्छीणि | अक्षीणि
इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत की अपेक्षा शौरसेनी के धातुरूप भी सस्कृत के बहुत अधिक समीप है । यथा प्राकृत शौरसेनी । सस्कृत । प्राकृत शौरसेनी सस्कृत
भवदि भवति । गच्छई गच्छदि गच्छति भवभवदु भवतु गच्छउ | गच्छदु । गच्छतु
इस प्रकार जन-साधारण को सुगम होने से बहुजन हिताय दि० जनाचार्यों ने अपनी रचनाए शौरसेनी प्राकृत मे की हैं।
भव