Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत एव अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव २८९
अन्तराल है उसकी अपेक्षा प्राकृत युग में भारतीय आर्य भाषा क्षेत्र' मे भाषात्मक अन्तराल कम होने का तो प्रश्न ही नही उठता, ये निश्चय ही बहुत अधिक रहे होगे । प्राकृत युग १ ईस्वी से ५०० ईस्वी तक है । आधुनिक युग की अपेक्षा डेढदो हजार साल पहले तो सामाजिक-सम्पर्क निश्चित ही बहुत कम होगा फिर भापात्मक अन्तराल के कम होने का सवाल कहा उठता है ? सामाजिक सम्पर्क जितना सधन होगा, भाषा विभेद उतना ही कम होगा। आधुनिक युग मे तो विभिन्न कारणो से सामाजिक सम्प्रेषणीयता के सावनो का प्राकृत युग की अपेक्षा कई कई गुना अधिक विकास हुआ है । इनके अतिरिक्त नागरिक जीवन, महानगरी का सर्वभाषायी स्वरूप, यायावरी वृनि, शिक्षा, भिन्न भाषायी क्षेत्रो मे वैवाहिक, व्यापारिक एव सास्कृतिक सबध तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष मे एक केन्द्रीय शासन
आदि विविध तत्त्वो के द्रत विकास एवं प्रसार के कारण आज भिन्न भाषाओ के बीच परस्पर जितना आदान-प्रदान हो रहा है उसकी डेढ दो हजार साल पहले कल्पना भी नही की जा सकती थी। इनके अतिरिक्त आधुनिक भारतीय आर्य भाषा काल मे तो अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओ की शब्दावली, ध्वनियो एव व्याकरणिक रूपो ने सभी भाषाओ को प्रभावित किया है। इतना होने पर भी आज भी भिन्न-भिन्न क्षेत्रो की भाषाओ मे पारस्परिक वोधगम्यता नही है । आज भारतीय आर्य भाषा क्षेत्र मे जितनी भिन्न भाषाय एव किसी भाषा के जितने भिन्न-भिन्न उपरूपो का प्रयोग होता है प्राकृत युग मे तो उस क्षेत्र मे निश्चित रूप से अपेक्षाकृत अधिक संख्या मे भिन्न भाषाओ तथा उनके विभिन्न क्षेत्रीय उपरूपो का प्रयोग होता होगा किन्तु हमे आज जो प्राकृत रूप उपलब्ध हैं वे एक ही प्राकृत के क्षेत्रीय रूप है जिनमे बहुत कम अन्तर है एक भाषा की क्षेत्रीय बोलियो मे जितने अन्तर प्राय होते है उससे भी बहुत कम । भाषा की बोलियो के अन्तर तो सभी स्तरो पर हो सकते हैं जबकि इन तथाकथित भिन्न प्राकृतो मे तो केवल उन्चारणगत भेद ही उपलब्ध हैं। विभिन्न प्राकृतो को देश भाषाओ के नाम से अभिहित किया गया है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से ये देश की अलग-अलग भापायें न होकर एक ही प्राकृत भाषा के देश भाषाओ से रजित रूप हैं। एक ही मानक साहित्यिक प्राकृत के विविध क्षेत्रीय रूप है जिनमे स्वभावत विविध क्षेत्रो की उच्चारणगत भिन्नताओ का प्रभाव समाहित है । आधुनिक दृष्टि से समझना चाहे तो ये हिन्दी, मराठी, गुजराती की भाति भिन्न भाषायें नही है अपितु आधुनिक साहित्यिक हिन्दी भाषा के ही 'कलकतिया हिन्दी,' 'वनइया हिन्दी,' 'नागपुरी हिन्दी' जैसे रूप है।
मेरी इस प्रतिपत्तिका का आधार केवल भाषा वैज्ञानिक ही नही है, इसकी पुष्टि अन्य स्रोतों से भी सम्भव है । भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र मे यह विधान किया है कि नाटक मे चाहे शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया जाये चाहे अपनी