Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत एवं अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं पर प्रभाव २६५
मे 'र' के बाद का 'इ' का उच्चारण अग्र की अपेक्षा मध्योन्मुखी होता है।
३ 'प' वर्ण का मूर्धन्य उच्चारण किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा मे नही होता।
४ अपभ्र श के 'ऐं' एवं 'ओ' के ह्रस्व उपारण आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे सुरक्षित है। इसी कारण 'ए' 'ऐ' 'ओ' 'औ' का उच्चारण मूल स्वरो के रूप मे होने लगा है।
५ हिन्दी, उर्दू, सिन्धी, पजाबी, उडिया आदि मे मूर्धन्य उत्क्षिप्त 'ड' एव 'ढ' विकसित हो गए है।
६ मध्य भारतीय आर्य भापा काल मे जिन शब्दो मे समीकरण के कारण एक व्यजन को द्वित्व रूप हो गया था, अपभ्र श के परवर्ती युग एक व्यजन शेष रह गया तथा उसके पूर्ववर्ती अक्षर के स्वर मे क्षतिपूरक दीर्धीकरण हो गया। सिन्धी, पजाबी एव हिन्दी की बागरु एव खडी बोली के अतिरिक्त सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे यह प्रवृत्ति सुरक्षित है । यथा
कम >+म>कामु>कामु>काम्
७. अपभ्र श मे अन्त्य स्वर के हस्वीकरण एव लोप की प्रवृत्ति मिलती है। पासणाह पार से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है
महिला> महिल १।१०।१२ । जघा>जघ ३।२।८। गृहिणी>घरिणि १।१०।४ । गम्भीर > गहिर ३।१४।२। पापाण>पाहण २।१२।६ । पुडरीक > पुडरिय १७।२१।२ । बिहारी, काश्मीरी, सिन्धी और कोकणी के अतिरिक्त अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे भी यह प्रवृत्ति है।
हिन्दी मे अकारान्त शब्दो को प्राय व्यजनान्त रूप मे उच्चारित किया जाता
व्याकरणिक
१ विभक्ति रूपो की संख्या मे कमी प्राकृत काल मे ही विभक्ति रूपो की सख्या मे कमी हो गयी थी। विभिन्न कारको के लिए एक विभक्ति तथा एक कारक के लिए विभिन्न विभक्तियो का प्रयोग होने लगा था। एक ओर कर्म, करण, अपादान तया अधिकरण के लिए षष्ठी विभक्ति का तया कर्म एव करण के लिए सप्तमी विभक्ति का तो दूसरी ओर अपादान के लिए तृतीया तथा सप्तमी विभक्तियो का प्रयोग मिलता है।८
अपभ्र श मे विभक्ति रूपो की संख्या मे और कमी हो गयी। कर्ता-कर्मसम्बोधन के लिये समान विभक्तियो का प्रयोग आरम्भ हो गया। इसी प्रकार एक और करण-अधिकरण के लिए तो दूसरी ओर सम्प्रदान-सम्बध के लिए समान