Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत एव अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव २६३ भापार्य अर्थात् अवधी, बघेली, और छत्तीसगढी, शौरसेनी अपभ्र श से बुन्देली, कनौजी, ब्रजभाषा, वागरू, हिन्दी या उर्दू ये पाश्चात्य हिन्दी भापायें, नागर अपभ्र श से राजस्थानी, मालवी, मेवाडी, जयपुरी, मारवाडी तथा गुजराती भापा, पालि से सिंहली और मालदीवन, टाकी अथवा ढाकी से लहडी या पश्चिमीय पजाबी, टाकी अपभ्र श (सौरसेनी से प्रभावयुक्त) से पूर्वीय पजावी, प्राचड अपभ्र श से सिन्धी भाषा, और पशाची अपभ्र श से कश्मीरी भाषा का विकास हुआ।९३
यद्यपि यह विवरण भी केवल ऐतिहासिक सम्बन्धो का द्योतन कराने के उद्देश्य से ही प्रस्तुत है फिर भी इसमें यह दृष्टि तो मिलती ही है कि अपभ्र श मे ही विविध भापिक धारायें थी तथा अलग-अलग धारा से किस प्रकार आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ की किन प्रमुख शाखा प्रशाखाओ का विकास हुआ है। जिस प्रकार हमे अपभ्र श की अलग-अलग भाषा धारा के वैशिष्ट्य की जानकारी एव सामग्री प्राप्त नही है उसी प्रकार इन धाराओ से नि सृत होते समय आधुनिक भारतीय आर्य भाषा की किस शाखा का क्या जन प्रचलित स्वरूप था इसका ज्ञान नहीं है।
४ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे से कुछ भाषाओ मे प्राचीन साहित्य अवश्य उपलब्ध है । इस सम्बन्ध मे भी दो सीमायें हैं (क) उपलब्ध साहित्य सक्रान्तिक काल के प्रथम चरण का न होकर परवर्ती
युग का है। हिन्दी मे ग्यारहवी सदी मे राउलवेल, उडिया मे १०५१ई० मे अनन्त वर्मा के उरजम शिलालेख, बगला मे १०५० ई० से १२०० ई. तक के परियागीति, मराठी एव गुजराती मे १२वी शताब्दी मे क्रमश मुकुन्द राय के गीत तथा शालिभद्र कृत भारतेश्वर बाहुबलिरास मिलता है। पजाबी मे तो १२वी शताब्दी के भी अन्तिम चरण मे वावा फरीद शकरगज की रचनायें तथा असमिया मे १३वी शताब्दी मे जाकर हेम सरस्वती, हरि विप्र, माधवकदाले तथा शकरदेव की
रचनायें प्राप्त हो पाती हैं। (ख) इससे लिखित साहित्यिक भाषा के ही स्वरूप को पता चल सकता है,
___ जनजीवन मे व्यवहृत तत्कालीन भाषिक रूपो का पता नहीं चलता।
इस प्रकार यह यद्यपि निर्विवाद है कि आधुनिक भारतीय मार्य भाषाओ के विविध रूपो का विकास उनके प्राकृत एव अपभ्र श रूपो से हुआ किन्तु उपर्युक्त कारणो से हम इस विकास यात्रा का पूरा लेखा जोखा प्रस्तुत नही कर सकते ।
अतएव प्राकृत एव अपभ्र श के साहित्यिक भाषा रूपो की सामान्य उच्चारणगत अभिरचनाओ, व्याकरणिक व्यवस्थाओ एव सरचनाओ ने आधुनिक भारतीय