Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२५६ सस्कृन-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
हैं । या अन्तत. यो कहा जा सकता है कि ये भाषाए जिम समान सोत ने उत्पन्न हुई है, वह मस्कृत है। यहा हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकृत बहु सख्यक प्राचीन भारतीय वोलियो से मानव ५ मे परिनिटिन और परिष्कृत हुई है। ये वोलियां ऋग्वेद काल में भी प्रचलित थी और गंकृत के साथ-साथ पाणिनि और पतजलि के युग मे और उसके बाद भी तादियों तक बनी रही। ये ही पालि-प्राकृत भापाए थी। उन्हे को ने सात श्रेणियो में विभक्त किया है। १. धार्मिक प्राकृत, २ साहित्यिक प्राकृत, ३. नाटकीय प्राकृत, ४ वैयाकरणो द्वारा वणित प्राकृत भाषाए, ५ भारत बहि म्थ प्राकृत, ६ मभिलेन्द्रीय प्राकृत, और ७ लोक प्रचलित सस्कृत ।" आगे के पृष्ठो मे इन प्राकृतो ५. पुंछ विस्तार से ही विचार किया गया है। ___ उपलब्ध व्याकरणो का आधार लेक. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'अभिनव प्राकृत व्याकरण' लिखा जिसका प्रकाशन तारा प्रिंटिंग प्रेस से १६६३ मे हुआ। इसमे डा० शास्त्री ने हेमचन्द्र आदि के प्राकृत व्याकरणो को आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है । साथ ही उन्होने आधुनिक भापाओ मे लिखे प्राकृत व्याकरणो का भी उपयोग किया है। अतः वह छात्रो को विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ है। डा० शास्त्री का प्राकृत भाषा और माहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' अन्य भी यहा उल्लेखनीय है, जिसमे उन्होंने प्राकृत भाषा का विकास प्राचीन आर्यभापा छान्दस से माना है। उपल० प्राकृत साहित्य को उन्होने द्वितीय स्तरीय प्राकृत के अन्तर्गत रखा, जिसके पाच भेद किए १ आप प्राकृत जिसमे पालि भी सम्मिलित है, २ शिलालेखी प्राकृत, ३ नियप्राकृत, ४ चमपद की प्राकृत, और ५ अश्वधो५ नाटको की प्राकृत । द्वितीय स्तरीय मध्ययुगीन प्राकृत मे महाराष्ट्री, मागधी, पंगाची, चूलिका पैशाची, शौरसेनी, २ाकारी, ढक्की, आदि भापाली पर विचार किया गया है तथा द्वितीय स्तरीय तृतीय युग मे अपभ्रंश भापा को सयोजित किया है। इन सभी की विशेषताए सक्षेप मे इस ग्रन्थ मे उपस्थित की गई है।
इन प्रन्यो मे अपभ्र श को भी सम्मिलित किया गया है। परन्तु कुछ विद्वानो ने पृथक् रूप से अपभ्र श व्याकरणो की रचना की है। पतजलि से लेकर हेमचन्द्र तक प्राय. सभी वैयाकरणो ने अपभ्र श का उल्लेख किया है। अपभ्रश व्याकरणो की कुछ पृथक् रचनाए भी हुई है, जिनमे डा० देवेन्द्र कुमार जैन का अपम्र श व्याकरण (वाराणसी), तया अपभ्र श भापा और साहित्य (भारतीय ज्ञानपीठ, कागी, १९६६) डा० परममित्र शास्त्री का सूत्रशैली और अपभ्र श व्याकरण आदि जैसे ग्रन्थ उल्लेखनीय है । डा० नामवर सिंह और डा० शिवप्रसाद सिंह के गन्यो ने भी अपभ्रश और अवहट्ट भापामओ तथा उनके व्याकरणो को समझने मे अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । प्रस्तुत निवन्ध के लेखक का भी पालि-प्राकृत