Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २७५
वस्तुत मखलि गोशाल और उनके सिद्धातो की परंपरा विच्छिन्न हो जाने (या विच्छिन्न कर दिये जाने) के कारण यह सब घोटाला हुआ जान पडता है। चित्रपत्र दिखाकर आजीविका चलाने वाले को मख कहा है (बृहत्कल्प माज्य पीठिका २००
आवश्यकचूर्णी, पृ० ६२, २८२), फिर भी अश्वघोप जसे विद्वान् ने 'मत गिर' (मा खलि) इत्यादि व्युत्पत्ति प्रस्तुत कर अपने को उपहास का ही भाजन बनाया है।
८ अधगवहि यादववशी एक सुप्रसिद्ध राजा। लेकिन अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की टीका (१८ ३, पृ० ७४५ अ) मे इस शब्द का निम्नलिखित अर्थ किया है अहिपा-वृक्षास्तेपा वयस्तदाश्रयत्वेनेत्यहिपवहयो बादरतेजस्कायिका
इत्यर्य । यहा बादरतेजस्कायिक जीवो को अवगवहि बताया गया है लेकिन इस ___ अर्थ के बारे मे पूर्णतया अस दिग्ध न होने से टीकाकार दूसरो की मान्यता भी
प्रस्तुत करते हैं अन्ये त्वाहु -अधका अप्रकाशका सूक्ष्मनामकर्मोदयाये वह्नयस्ते अधकवह्नयो जीवा , यहा सूक्ष्म अग्निकायिक जीवो को अधकवहि कहा है। गुणभद्र ने उत्तरपुराण मे (७० ६४) मे अधगवहि को अधकति रूप मे प्रस्तुत कर अधकवृष्टि के रूप मे उल्लिखित किया है, इससे भी इस विषय मे एकमत न होने का ही समर्थन होता है।
९ वीतिभय--सिन्धु-सौवीर की राजधानी मानी गयी है। चम्पा से वीतिभय पहुचकर वीतिभय के राजा उद्रायण को भगवान महावीर द्वारा श्रमण दीक्षा देने का प्रसग भगवतीसूत्र में उल्लिखित है। टीकाकार अभयदेव सूरि ने वीतिमय की निम्नलिखित व्याख्या की है विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभय, विदर्भ इति केचित् (भगवती १३६), अर्थात् जिस स्थान पर भय की आशका न हो, वह वीति भय है। अपनी इस व्याख्या से सतुष्ट न होने के कारण आगे चलकर टीकाकार को अन्य किसी आचार्य का मत उद्धृत करना पडा, जिसने विदर्भ को वीतिभय स्वीकार किया है। वस्तुत वीतिभय सिन्धु-सौवीर का मुख्य नगर था अतएव विदर्भ से उसकी पहचान नहीं की जा सकती।
१० कुत्तियावण- की टीकाकारो द्वारा दी हुई व्याख्या ऊपर आ चुकी है । और भी कितने ही शब्द ऐसे है जिन्हे उदाहरण रूप मे प्रस्तुत किया जा सकता है, किन्तु विस्तारभय से ऐसा न कर कुछ गिने-चुने शब्दो से ही सतोष किया जा रहा है।
कर्पूरमजरी के विद्वान् सपादक डॉ. मनमोहन घोष ने अपनी भूमिका मे ठीक ही लिखा है कि प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह जाने से आगे चलकर इसके रूप नियत करने मे काफी कठिनाई का सामना करना पडा। नतीजा यह हुआ कि इतस्तत विखरे हुए प्राकृत साहित्य को पढ़-पढ़कर ही वैयाकरण अपने सूत्रो को ढने लगे। ऐसी हालत मे प्राकृत व्याकरण सबधी जो विवेचन उन्होने प्रस्तुत