Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
View full book text
________________
अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २७३
लेकर भागा, श्रेणिक एक भभा (एक वाद्य) लेकर चले। तभी से उनका नाम भभसार पड गया (आवश्यक चूर्णी, २, पृ० १५.८) । आचार्य हेमचन्द्र ने यही व्युत्पत्ति स्वीकार की है। बौद्ध ग्रथो मे बिंबिसार का अर्थ सुनहरे (बिबि) वर्ण वाला किया गया है)।
२ कूणिक जैन ग्रथो मे कूणिक (अजातशत्रु बौद्ध ग्रयो मे) को अशोकचन्द्र, वजिविदेहपुन अथवा विदेहपुत्त भी कहा है । जान पडता है कि इस शब्द की व्याख्या करते हुए भी जैन आचार्यों को खीचातानी करनी पडी। वज्जिविदेहयुक्त (भगवती ७६) अथवा विदेहपुत्त कहे जाने का कारण स्पष्ट है कि उनकी माता पेलणा विदेहवश की थी। बौद्ध सूत्रो मे भी अजातशत्रु को वेदेहिपुत्त कहा गया है । यद्यपि दीघनिकाय के टीकाकार अश्वघोप ने 'वेदेन इहति इति वेदेहि', अर्थात् बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने वाले को वेदेहिपुत्त माना है (अट्टकथा १, पृ० १३६)।
जैन टीकाकारो की कूणिक और अशोक चन्द्र की व्युत्पत्ति भी इसी तरह हास्यास्पद कही जायेगी। कथन है कि कूणिक के पैदा होने पर उसे नगर के वाहर एक कूडी पर छुडवा दिया गया, जहा किसी मुग की पूछ से उसकी कून उगली मे चोट लग गई। तभी से वह कूणिक कहा जाने लगा। एक दूसरी परपरा के अनुसार कूणिक के जन्म के पश्चात् जिस अशोक वन मे उसे छोड दिया गया था, वह प्रकाशित हो उठा। अतएव कूणिक अशोकचन्द्र नाम से प्रसिद्व हो गया (आवश्यक चूर्णी २, पृ० १६६) निरयावलि १, ११ ब , हेमचन्द्र, महावीरचरित उल्लेखनीय है कि उक्त दोनो परपरायें एक ही ग्रय आवश्यक चूर्णी मे उद्धत है, जिससे जान पडता है कि चूर्गीकार इस मवध मे स्वय अमदिग्ध नही थे। बौद्ध ग्रथो मे कणिक को अजातशत्रु कहा जाना उसके प्रति विशेप आदर का सूचक प्रतीत होता है।
३ वज्जी वज्जी एक जाति अथवा वश का नाम है । बौद्धसूत्रो मे वज्जियो के आ० कुलो का उल्लेख है, जिनमे वैशाली के लिच्छवी और मिथिला के विदेह मुख्य माने गये है। भगवती सून मे वज्जी की गणना १६ जनपदो में की गई है। वजिविदेहपुत्र का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। फिर भी लगता है कि जैन और बौद्ध दोनो ही टीकाकारों के काल मे यह मूल ५२५रा विस्मृत हो चुकी थी। उपर्युक्त प्रसग पर वज्जी विदेहयुत्त के अन्तर्गत बज्जी शब्द का अर्थ टीकाकार ने इन्द्र किया है वजम् अस्य अस्ति (भगवती ७ ६ टीका)। आचार्य हेमचन्द्र ने यही अर्थ स्वीकार किया है । मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा मे भी वज्जी वश की विचित व्युत्पत्ति दी हुई है जिससे उपर्युक्त वक्तव्य का समर्थन होता है।
४ लिच्छवि (अथवा लेच्छइ) शब्द के संबंध मे भी यही हुआ। परपरा के अभाव मे टीकाकारो ने अर्थ का अनर्थ कर डाला। कालिदास के टीकाकार