Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२७६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा किया, उसका अस्पष्ट और अपूर्ण रह जाना स्वाभाविक था। वस्तुत जिस साहित्य का विश्लेषण कर वे लोग व्याकरण के सूत्रो की रचना कर रहे थे, वह सर्वथा भिन्न काल का साहित्य था।
ऐसी दशा मे जैन आगम साहित्य के मूल रूप का निर्धारित करना कठिन ही नही, असभव जान पडता है। फिर भी इतना तो किया ही जा सकता है कि प्रामाणिक मूल प्रतियो की सहायता से जैन आगमो और उनकी प्राचीन टीकाओ के समालोचनात्मक (क्रिटिकल) सस्करण प्रकाशित किये जाये । इस दिशा मे भगवान महावीर की पचीसवी निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष मे जैन विश्वभारती, लाडनू द्वारा आगम-ग्रन्थो का प्रकाशन एक स्तुत्य प्रयत्न है। आगम ग्रन्यो का पालि त्रिपिटक के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, इससे आगमो का विषय अधिक स्पष्ट हो सकेगा और विषय की पूर्वापर ऐतिहासिक दृष्टि हमारे समक्ष आ सकेगी । आगमो के प्रत्येक आगम का पृथक् रूप से समयनिर्धारण की भी बहुत आवश्यकता है । यह कार्य आगमो मे उल्लिखित विषयवस्तु के विश्लेषणात्मक अध्ययन से सभव हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि आगम-साहित्य को देश-विदेश मे उपादेय बनाने के लिये तुलनात्मक व्यापक दृष्टि से उनका अध्ययन और चितन किया जाये।
हरगोविन्ददास सेठ के हम अत्यन्त आभारी है जिन्होने प्राकृत की अनेक हस्तलिखित प्रतियो का अध्ययन कर ई० १९२८ मे पाइअसहमहण्णवो जैसा महत्वपूर्ण कोष प्रकाशित किया। किन्तु क्या पिछले ४८ वर्षों में इस दिशा मे हमने कुछ प्रगति की है ? १६६३ मे प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी की ओर से इसका कायाकल्प किया गया, किन्तु मुनिराज श्री पुण्य विजयजी द्वारा सूचित कतिपय शब्दो को छोडकर उसे ज्यो का त्यो छाप दिया गया। कहने की आवश्यकता नही कि प्राकृत के कितने ही महत्त्वपूर्ण शब्दो का इस कोप मे समावेश नही है।
आगमो के अन्तर्गत छेदसूत्रो के भाष्य एव चूर्गी-साहित्य मे कितनी सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री भरी पडी है, यह कहने की आवश्यकता नही। जैनकया साहित्य तो इस प्रकार की सामग्रो का अनुपम भडार है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह समस्त साहित्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भापाविज्ञान के पडितो का लक्ष्य इस और अभी तक नही पहुचा है। दिगम्बरो के प्राचीन ग्रन्य भगवती आराधना, मूलाचार आदि के तुलनात्मक अध्ययन की भी कुछ कम आवश्यकता नही। इस अध्ययन से दिगवर-श्वेतावर परपरा के मतभेद की गुत्थियो पर प्रकाश पड सकेगा। भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् भारतीय विद्या के क्षेत्र मे जो महत्त्वपूर्ण खोजबीन हुई है, उसका पर्याप्त लाभ उठाया जा सकता है।