Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२५८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और को की परम्परा
भाग), A Prakrit Grammar attributed to Samantabhadra (IH Q.XVII, pp 511-16, कलकत्ता, 1952), Language and dialects used in the Kuvalayamala (Summary of Papers, AID.C. XXII Session, Gauhati, 1965) आदि । डा० भयाणी, डा हीरालाल जैन, मुनि नयमल, के ऋषभचन्द्र आदि विद्वानो के भी कुछ निवन्ध प्राकृत व्याकरण के विभिन्न पक्षो पर प्रकाशित हुए है।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी भारतीय विद्वानो ने प्राकृत भाषा की उपयोगिता पर विचार-मन्थन किया है । इस दृष्टि से डा एस एम. कत्रे के Introduction to Modern Indian Linguistics with special reference to Indo-Aryan and Assamese (University of Gauhati, 1941) डा० एस० एम० घाटगे के Historical Linguistics and Indo
Aryan Languages (University of Bombay, 1962) तथा डा० प्रबोध पण्डित के 'प्राकृत भापा' (वाराणसी, १६५४) पर दिए गये भाषण भारतीय आर्य भाषाओ के विकाम मे प्राकृत के योगदान को स्पष्ट करते है। इसी प्रकार डा० एस० के० चटर्जी और डा० सुकुमार सेन का Middle IndoAryan Reader, (University of Calcutta, 1957), डा० P D. गुणे का 'Introduction to Comparative Philology, Apabhramsa Literature and its importance to Philology (Poona, 1919 AIOC), S.N घोषाल का 'On the Etymology of the Prakrit Vocable Pore (VIG , होशियारपुर, मार्गव, मार्च, १९६७, पृ० ३८-४०), गुरुसेवी शर्मा का "मागधीभासासु क्रियापदाना विश्लेपणम्' (AIOC , अलीगढ), मुनीश्वर झा 01 Modal Relation in Prakrits (967) 29 Desi words in Kalidasa's Prakrit (वही) आदि लेख भी उपयोगी हैं।
प्राकृत और अपभ्र श के मूल ग्रन्थो के सम्पादन मे सपादको ने ग्रन्थो की भाषाओ पर भी विचार किया है। इस दृष्टि से डा० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित ग्रन्थ उल्लेखनीय है १ णायकुमारचरित (प्रथम सस्करण कारजा सीरिज से १६३१ मे और द्वितीय सस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से १९७२ मे), २. पाहुड दोहा (कारजा सीरिज से १६३३ मे), ३ सावयधम्म दोहा (कारजा सीरिज, १०३२), ४ करकडघरिज (कारजा से १६३४ मे प्रथम सस्करण और भारतीय ज्ञानपीठ से १६६४ मे द्वितीय सस्करण), ५-२० पट्खण्डम धवलाटीका व हिन्दी अनुवाद के साथ १६ भागो मे (शि० ला० जैन साहित्योहार फण्ड, १६३६-५८), २१ सुगवदसमी कहा (भारतीय ज्ञानपीठ, १९६२), २२ मुदमणचरिउ (भारतीय ज्ञानपीठ, १९७०), २३ मयण पराजय (भारतीय ज्ञानपीठ, १९६२), २४ कहक्कोसु (प्राकृत सोसाइटी, अहमदाबाद,