Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २५६
१९६९), २५. जसहर चरिउ (भारतीय ज्ञानपी०, १९७३), तथा वीरजिणिदचरिउ (भारतीय ज्ञानपीठ, १९७५) ।
डा० हीरालालजी के अन्यतम विद्वान् मित्र डा० ए० एन० उपाध्ये ने भी अनेक प्राकृत ग्रन्थो का सपादन किया है, जिनमे उन्होने उन ग्रन्थो की भाषा पर भी विस्तार से विचार किया है। उनके कतिपय सम्पादित ग्रन्थ इस प्रकार है। पंचसूत्र (१९३४), २ प्रवचनसार (रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, १६३५), ३. परमात्म प्रकाश (१९३७), ४ कसवहो (हिन्दी ग्रन्य रत्नाकर ववई, १९४०), ५ धूर्ताख्यान (भारतीय विद्याभवन, वम्बई, १९४४), ३ लीलावई (सिंधी जैन ग्रन्थमाला, १६४६), ७ आणद सुन्दरी (मोतीलाल बनारसीदास, १९५५), ८ उसाणिरुद्ध (बम्बई विश्वविद्यालय जर्नल, १९४१), ६ कुवलयमाला (सिंधी जैन ग्रन्यमाला, १९५६), १० चदलेहा (भारतीय विद्याभवन, १९४५), ११ सिंगारमजरी, (पूना विश्वविद्यालय जर्नल, १९६०), १२. कट्टियाणुपेक्खा (रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, १६६०), आदि । इनके अतिरिक्त डा० उपाध्ये ने डा० हीरालालजी के सहयोग से कुछ और ग्रन्थो का सम्पादन किया, जिनका प्रकाशन जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से श्री प० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री के हिन्दी अनुवाद सहित हुआ। इन ग्रन्थो मे तिलोयपण्णत्ती (प्रथम संस्करण, १६४३, द्वि० स० १६५६) भाग, तिलोय पण्णत्ती भाग २ (१९५१) तथा जवूदीवपण्णत्ती (१९५७) प्रमुख ग्रन्थ हैं।
मुनि नथमलजी प्राकृत और जैन दर्शन के विश्रुत विद्वान् हैं । उन्होने उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि ग्रन्थो का सम्पादन तथा अनुवादन किया है। ग्रन्थभाग की व्याख्या और उसके विश्लेषण मे प्राकृत व्याकरण को भी स्पष्ट किया गया है। मुनिजी ने प्राकृत भाषा के सन्दर्भ मे पृथक् रूप से भी यत्र-तत्र अपने गभीर विचार प्रस्तुत किये हैं।
इसके अतिरिक्त डा० विमल प्रकाश जैन द्वारा सपादित जम्बू स्वामि चरि (भारतीय ज्ञानपीठ) । डा० भयाणी द्वारा संपादित आहिल का पाउमसिरिचरिउ, डा० राजाराम जैन द्वारा सपादित विवध श्रीधर का वडढमाणपरिउ आदि ग्रन्थ भी दृष्टव्य हैं, जिनकी भूमिकाओ मे सपादको ने सम्बद्ध ग्रन्थो की भाषा पर विस्तार से विचार किया है।
सस्कृत नाटको मे प्रयुक्त प्राकृत की भी भारतीय विद्वानो ने मीभासा की है। एस० बी० पण्डित ने विक्रमोर्वशीय (BSS १८८६) और मालविकाग्निमित्र (BSSS , 1889) की भूमिका मे, गोडवोले ने मृच्छकटिक (BSS १८६६) की भूमिका मे, तेलग ने मुद्राराक्षस (१६००) की भूमिका मे तथा आर० जी० भण्डारकर ने मालतीमाधव की भूमिका मे (१९०५), प्राकृत वोलियो की विशेषताओ को स्पष्ट किया है । भास के नाटको पर गणपति शास्त्री (१९१०.