Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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२५४ सरबत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
को तुलनात्मक अध्ययन के साथ प्रस्तुत करने वाली यह कृति निःसन्देह अनुपम
इसके बाद डा. दिनेशचन्द्र सरकार की "Grammar of the Prakrit Languages" उल्लेखनीय है जिसमे उन्होने अर्धमागधी के साथ ही अन्य प्राकृती पर भी विचार किया है । शिलालेखी प्राकृतो पर डा० एम ए महेन्दले का बहुत अच्छा कार्य हुआ है। उन्होने Historical Grammar of Incriptional Prakuts (पूना, १९४८)मे प्राकृत की विभिन्न विकासात्मक स्थितियो को स्पष्ट किया है। पूना से ही प्रकाशित तगारे का Historical Grammar of Apabhramsa (१९४३) तथा दावाने का Nominal Composition in Middle Indo-Aryan (पूना, १९५६) ग्रन्य भी यहा उल्लेखनीय है । Comparative Syntax of Middle Indo-Aryan नाम से एक अन्य ग्रन्थ कलकत्ता से १९५३ मे प्रकाशित हुआ । इन ग्रन्यो मे भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत पर विचार किया गया है। __डॉ० सरयूप्रसाद अग्रवाल का 'प्राकृत विमर्श' लखन विश्वविद्यालय से १९५३ मे प्रकाशित हुआ। इसमे लेखक ने मुख्य प्राकृतो के अतिरिक्त प्रारम्भिक प्राकृत-पालि, शिलालेखी प्राकृत और उत्तरकालीन प्राकृत-अपभ्र ग का सक्षिप्त परिचय दिया है। नियमो को स्पष्ट करते समय सूत्रो का उल्लेख तथा साथ ही सस्कृत से तुलना कर दी गई है। इससे सस्कृत और प्राकृत को एक साथ समझा जा सकता है । पिशेल के प्राकृत व्याकरण का भी यहा भरपूर उपयोग हुआ है। पुस्तक पाच अध्यायो मे विभक्त है १ प्राकृत और उसकी विभिन्न बोलियो का परिचय, २ प्राकृत बोलियो की सामान्य विशेषताए, ३ प्राकृत की ध्वनि मम्वन्धी विशेषतायें, ४. प्राकृत के पद, रूपो का विकास, ५ प्राकृत के क्रियापदो का विकास । अन्त मे प्राकृत साहित्य से २१ उद्धरणो को चयनिका भाग मे देकर प्राकृत के विकास को और भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया परन्तु ये उद्धरण कालक्रम से नहीं दिए गए । कालक्रम से दिए जाते तो और अधिक अच्छा रहता। प्राकृत भाषाओ का वर्गीकरण यहा तीन प्रकार से किया गया है धार्मिक साहित्यिक और नाटकीय । ___डा० प्रबोध पडित भाषाविज्ञान के विश्रुत प्राध्यापक थे। उन्होने पावनाथ विद्याश्रम, वाराणसी द्वारा आयोजित 'प्राकृत भाषा' पर १९५३ मे, तीन भाषण दिए थे, जो १९५४ मे प्रकाशित हो गए। इन तीन भाषणो के शीर्षक थे प्राकृत की ऐतिहासिक भूमिका, २ प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग, और ३ प्राकृत का उत्तरकालीन विकास । डा० पडित ने प्राकृत को स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'एक ओर से वर्तमान काल की बोलचाल की नव्य भारतीय आर्यभापाये और दूसरी ओर से प्राचीनतम भारतीय आर्यभाषा जैसे कि वेद की भापा,